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'{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=गोपालदास "नीरज" |अनुवादक= |संग्रह=ग...' के साथ नया पन्ना बनाया
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{{KKRachna
|रचनाकार=गोपालदास "नीरज"
|अनुवादक=
|संग्रह=गीत जो गाए नहीं / गोपालदास "नीरज"
}}
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<poem>
साथी, सब सहना पड़ता है।
उर-अन्तर के अरमानों को,
छालों को मधु-वरदानों को,
और मूक गीले गानों को
निर्मम कर से स्वयं कुचल कर
और मसल कर-
भी तो जननी के सम्मुख
असमर्थ हमें हँसना पड़ता है।
संचित जीवन-कोष लुटा कर
पाषाणों पर हृदय चढ़ाकर
सब अपने अधिकार मिटाकर
घूँट हलाहल-सी भी पीकर-
अपने ही हाथों से कंपित
और विनिन्दित-
भी हो, खुशी न खुशी से
पर मर-२ कर जीना पड़ता है।
जीवन के एकाकी-पथ पर
कुछ कांटों की सेज बिछाकर
कर का जलता दीप बुझाकर
पग अपने सहला-२ कर-
अपने ही हांथों से विह्वल
तन-मन व्याकुल-
भी हो पर जीवन-पथ पर
हमको प्रतिपल बढ़ना पड़ता है।
साथी, सब सहना पड़ना पड़ता है॥
</poem>
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|संग्रह=गीत जो गाए नहीं / गोपालदास "नीरज"
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साथी, सब सहना पड़ता है।
उर-अन्तर के अरमानों को,
छालों को मधु-वरदानों को,
और मूक गीले गानों को
निर्मम कर से स्वयं कुचल कर
और मसल कर-
भी तो जननी के सम्मुख
असमर्थ हमें हँसना पड़ता है।
संचित जीवन-कोष लुटा कर
पाषाणों पर हृदय चढ़ाकर
सब अपने अधिकार मिटाकर
घूँट हलाहल-सी भी पीकर-
अपने ही हाथों से कंपित
और विनिन्दित-
भी हो, खुशी न खुशी से
पर मर-२ कर जीना पड़ता है।
जीवन के एकाकी-पथ पर
कुछ कांटों की सेज बिछाकर
कर का जलता दीप बुझाकर
पग अपने सहला-२ कर-
अपने ही हांथों से विह्वल
तन-मन व्याकुल-
भी हो पर जीवन-पथ पर
हमको प्रतिपल बढ़ना पड़ता है।
साथी, सब सहना पड़ना पड़ता है॥
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