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बेताबी / हरिऔध

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|रचनाकार=अयोध्या सिंह उपाध्याय ‘हरिऔध’
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|संग्रह=चुभते चौपदे / अयोध्या सिंह उपाध्याय ‘हरिऔध’
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<poem>
अब तनिक भी न ताब है तन में।

किस तरह दुख समुद्र में पैठें।

बेतरह काँपता कलेजा है।

क्यों कलेजा न थाम कर बैठें।

बेतरह वह लगा धुआँ देने।

चाहता है जहान जल जाया।

मुद्दतें हो गईं सुलगते ही।

अब कलेजा न जाय सुलगाया।

है टपक बेताब करती बेतरह।

हैं न हाथों से बला के छूटते।

टूटते पाके पके जी के नहीं।

हैं नहीं दिल के फफोले फूटते।

जाति जिस से भूल चूकों में फँसी।

था भला वह भाव खलता ही नहीं।

क्या करें किस भाँति बहलायें उसे।

दिल हमारा तो बहलता ही नहीं।

अब हमारा वहीं ठिकाना है।

है जहाँ ठीक ठीक दुख देरा।

तब कहें बात क्यों ठिकाने की।

है ठिकाने न जब कि दिल मेरा।

जो रहा है बीत दिल है जानता।

है न इतनी ताब जो आहें भरें।

जब समय ने है पकड़ पकड़ी बुरी।

तब न दिल पकड़े फिरें तो क्या करें।
</poem>
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