भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

Changes

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

सिर और सेहरा / हरिऔध

1,622 bytes added, 17:04, 17 मार्च 2014
'{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=अयोध्या सिंह उपाध्याय ‘हरिऔध’ |अ...' के साथ नया पन्ना बनाया
{{KKGlobal}}
{{KKRachna
|रचनाकार=अयोध्या सिंह उपाध्याय ‘हरिऔध’
|अनुवादक=
|संग्रह=चोखे चौपदे / अयोध्या सिंह उपाध्याय ‘हरिऔध’
}}
{{KKCatKavita}}
<poem>
सोच लो, जी में समझ लो, सब दिनों।

यों लटकती है नहीं मोती-लड़ी।

जब कि तुम पर सिरसजा सेहरा बँधा।

मुँह छिपाने की तुम्हें तब क्या पड़ी।

ला न दें सुख में कहीं दुख की घड़ी।

ढा न दें कोई सितम आँखें गड़ी।

मौर बँधाते ही इसी से सिर तुम्हें।

देखता हूँ मुँह छिपाने की पड़ी।

अनसुहाती रंगतें मुँह की छिपा।

सिर! रहें रखती तुम्हारी बरतरी।

इस लिए ही हैं लटक उस पर पड़ी।

मौर की लड़ियाँ खिले फूलों भरी।

पाजियों के जब बने साथी रहे।

जब बुरों के काम भी तुम से सधो।

क्या हुआ सिरमौर तो सब के बने।

क्या हुआ सिर! मौर सोने का बँधो।
</poem>
Delete, Mover, Reupload, Uploader
1,983
edits