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धर्म का बल / हरिऔध

21 bytes removed, 09:16, 18 मार्च 2014
धूल में रस्सी न बट धाकें सकीं।
देख करके धार्म धर्म की आँखें कड़ी।कर न अंधाधुंधा अंधाधुंध पाई धाँधली।
दे नहीं धोखा सकी धोखाधाड़ी।
कर धमाचौकड़ी न धूत सके।
भूत के पूत चौंक कर भागे।
कर सका ऊधामी ऊधमी नहीं ऊधाम।ऊधम।
धर्म की धूम धाम के आगे।
देख कर धार्म धर्म धार पकड़ होती।
है न बेपीरपन बिपत ढाता।
साँसतें साँस हैं न ले सकतीं।
वह कसर है निकालता जी की।
धर्म की धाौल धौल है उसे लगती।
चाल जो देस को करे नटखट।
भूल जो डाल दे भुलावों में।
ठोकरें खा जो कि मुँह के बल गिरे।
है उन्हें उस ने समय पर बल दिया।
धार्म धर्म ने ही भर रगों में बिजलियाँ।
कायरों का दूर कायरपन किया।
</poem>
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