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दृष्टान्त / हरिऔध

248 bytes removed, 19:21, 18 मार्च 2014
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<poem>
है जिन्हें सूझ, जोड़ से ही, वे। 
भिड़ सके लाग डाँट साथ बड़ी।
 
भूल कर भी लड़ी न भौंहों से।
 जब लड़ी आँख साथ आश्ँख आँख लड़ी।
देख कर रंग जाति का बदला।
 
जाति का रंग है बदल जाता।
 
देख आँखें हुईं लहू जैसी।
 
आँख में है लहू उतर आता।
देख दुख से अधीर संगी को।
 
है जनमसंगिनी लटी पड़ती।
 
दाढ़ है दाँत के दुखे दुखती।
 
सिर दुखे आँख है फटी पड़ती।
तब भलाई भूल जाती क्यों नहीं।
 
जब सचाई ही नहीं भाती रही।
 जोत तब वै+से कैसे चली जाती नहीं। 
जब किसी की आँख ही जाती रही।
कौन आला नाम रख आला बना।
 
है जहाँ गुन, है निरालापन वहीं।
 
साँझ फूली या कली फूली फबी।
 
आँख की फूली फबी फूली नहीं।
एक से जो दिखा पड़े, उनका।
 
एक ही ढंग है न दिखलाता।
 
है कमल फूलना भला लगता।
 
आँख का फूलना नहीं भाता।
काम क्या अंजाम देगा दूसरा।
 
जब नहीं सकते हमीं अंजाम दे।
 
दे सकेगा काम सूरज भी तभी।
 
जब कि अपनी आँख का तिल कामदे।
पड़ बुरों में संगतें पाकर बुरी।
 
सूझ वाला कब बुराई में फँसा।
 
देख लो काली पुतलियों में बसे।
 
आँख के तिल में न कालापन बसा।
तब भला मैली वु+चैली कुचैली औरतें। 
क्यों न पायेंगी निराले पूत जन।
 
आँख की काली कलूटी पुतलियाँ।
 
जब जनें तिल सा बड़ा न्यारा रतन।
फूट पड़ता है उँजाला उजाला भी वहाँ। घोर ऍंधिायाली अँधियाली जहाँ छाई रही। 
जगमगा काली पुतलियों में हमें।
 
जोत वाले तिल जताते हैं यही।
सूझ वाले एक दो ही मिल सके।
 और सब अंधो अंधे मिले हम को यहाँ। 
देखने को देह में तिल हैं न कम।
 
आँख के तिल से मगर तिल हैं कहाँ।
वह कभी खींच तान में न पड़ा।
 
है जिसे आन बान की न पड़ी।
 
मोतियों से बनी लड़ी से कब।
 
आँसुओं की लड़ी लड़ी झगड़ी।
बीरपन से तन गयों के सामने।
 
कब जुलाहे जन सके ताना तने।
 
सूर कहला ले, मगर क्यों सूरमा।
 
सूरमापन के बिना अंधा बने।
भेख सच्चा दिखा दिख पड़ा न हमें। 
देख पाये जहाँ तहाँ भेखी।
 
फूल कब पा सके किसी से हम।
 
नाक फूली हुई बहुत देखी।
वे सभी क्यारियाँ निराली हैं।
 
बेलियाँ हैं जहाँ अजीब खिली।
 
कब सकीें बोल बोलियाँ न्यारी।
 
बोलती नाक कम हमें न मिली।
जिस जगह पर लगें भले लगने।
 
चाहिए हम वहीं उमग अटकें।
 
हैं कहीं पर अगर लटक जाना।
 
तो लटें गाल पर न क्यों लटकें।
लोग वै+से कैसे उलझ सकेंगे तब। 
जब हमारी निगाह हो सुलझी।
 बान होते हुए है उझलने उलझने की। 
लट कभी गाल से नहीं उलझी।
है लुनाई फिसल रही जिस पर।
 है उसे काम कम क्या कि वु+छ कुछ पहने। 
गोल सुथरे सुडौल गालों के।
 
बन गये रूप रंग ही गहने।
वु+छ कुछ बड़ों से हो न, पर कितनी जगह। 
काम करता है बड़ों का मेल ही।
 
पत बचाती है उसी की चिकनई।
 
गाल का तिल क्यों न हों बेतेल ही।
सब जगह बात रह नहीं सकती।
 
बात का बाँधा दें भले ही पुल।
 
हम रहें क्यों न गुलगुले खाते।
 
रह सका गाल कब सदा गुलगुल।
जो कि सुख के बने रहे कीड़े।
 
वे पडे देख दुख उठाते भी।
 
जो उठें तो उठें सँभल करके।
 
हैं उठे गाल बैठे जाते भी।
खोजने से भले नहीं मिलते
 
पर बुरों के सुने कहाँ न गिले।
 
मिल गये बार बार बू वाले।
 मुँह महँकते महकते हमें कहीं न मिले।
लत बुरी छूटती नहीं छोड़े।
 
क्यों न दुख के पड़े रहें पाले।
 
पान का चाबना कहाँ छूटा।
 
मुँह छिले और पड़ गये छाले।
जो उन्हें गुन का सहारा मिल सके।
 
बात तो कब गढ़ नहीं लेते गुनी।
 
देख तो पाई नहीं पर बारहा।
 
बात 'बूढ़े मुँह मुँहासे' की सुनी।
दुख मिले चाहे किसी को सुख मिले।
 
है सभी पाता सदा अपना किया।
 आप ही तो वह ऍंधोरे अँधेरे में पड़ा। 
जो किसी मुँह ने बुझा दीया दिया।
जो भरोसे न भाग के सोये।
 
देव उन से फिरा नहीं फिर कर।
 
जो रखें जान गिर उठें वे ही।
 
कब भला दाँत उठ सका गिर कर।
हैं दुखी दीन को सताते सब।
 
हो न पाई कभी निगहबानी।
 
लग सका और दाँत में न कभी।
 
हिल गये दाँत में लगा पानी।
नटखटों से बचे रहें कब तक।
 
जब उन्हें छोड़ नटखटी न हटी।
 
क्या हुआ बार बार बच बच कर।
 
कब भला दाँत से न जीभ कटी।
क्यों किसी बेगुनाह को दुख दें।
 
छूट क्यों जाँय कर गुनाह सगे।
 
और के हाथ में लगे तब क्यों।
 
जब बुरी जीभ में न दाँत लगे।
जो बड़प्पन है न तो वै+से कैसे बड़ा। 
बन सके कोई बड़ाई पा बड़ी।
 
देख लो कवि के बनाने से कहाँ।
 
दाँत की पाँती बनी मोती-लड़ी।
सैकड़ों नेकियाँ किये पर भी।
 नीच है ढा बिपत्तिा बिपत्ति कल लेता। 
जीभ है दाँत की टहल करती।
 दाँत है जीभ को वु+चल कुचल देता।
कर सकेंगे हित बने उतना न हित।
 
कर सकेगा हित सदा जितना सगा।
 
दे सकेंगे सुख न असली दाँत सा।
 
देख लो तुम दाँत चाँदी के लगा।
है बुरी लत का लगाना ही बुरा।
 
बन हठीली क्यों न वह हठ ठानती।
 
हम अमी भर भर कटोरी नित पियें।
 
पर चटोरी जीभ कब है मानती।
नित बुराई बुरे रहें करते।
 
पर भली कब भला रही न भली।
 दाँत चाहे चुभें, गड़ें, वु+चलें।कुचलें।
पर गले दाँत जीभ कब न गली।
सग दुखों से सगा दुखी होगा।
 
जल ढलेगा जगह मिले ढालू।
 
प्यास से जब कि सूखता है मुँह।
 
जायगा सूख तब न क्यों तालू।
हित करेंगे जिन्हें कि हित भाया।
 
लोग चाहे बने रहें रूखे।
 
जीभ क्यों चाट चाट तर न करे।
 
लब तनिक भी अगर कभी सूखे।
जो भले हैं भला करेंगे ही।
 वु+छ कुछ किसी से कभी बने न बने। 
तर किया कब न जीभ ने लब को।
 
क्या किया जीभ के लिए लब ने।
बस नहीं जिस बात में ही चल सका।
 
हो गई उस बात में ही बेबसी।
 
क्यों न भूखा भूख के पाले पड़े।
 
क्यों न सूखा मुँह हँसे सूखी हँसी।
कर सकेंगी संगतें वै+से कैसे असर। 
सब तरह की रंगतें जब हों सधी।
 
लाल कब लब की ललाई से हुई।
 
कब हँसी उस की मिठाई से बँधी।
बाढ़ परवाह ही नहीं करती।
 क्यों न उस पर बिपत्तिा बिपत्ति हो ढहती। 
हम मुड़ा लाख बार दें लेकिन।
 
मूँछ निकले बिना नहीं रहती।
है सभी खीज खीज जाते तब।
 
रंज जब जान बूझ हैं देते।
 
बीसियों बार मनचले लड़के।
 
मूँछ तो नोच नोच हैं लेते।
हो सके काम जो समय पर ही।
 
हो सका वह न ठान ठाने से।
 
पाँव लेवें जमा भले ही हम।
 
मूँछ जमती नहीं जमाने से।
पट सके, या पट न औरों से सव+े।सके।
पर कहीं ''नटखट'' भला है बन गया।
 
पड़ सके या पड़ सके पूरी नहीं।
 
मूँछ भूरी का न भूरापन गया।
कब भलाई से भलाई ही हुई।
 
सादगी से बात सारी कब सधी।
 साधा साध रह जाती सिधाई की नहीं। 
देख सीधी दाढ़ियों को भी बँधी।
बाहरी रूप रंग भावों ने।
 
भीतरी बात है बहुत काढ़ी।
 
खुल भला क्यों न जाय सीधापन।
 
देख सीधी खुली हुई दाढ़ी।
गुन तभी पा सके निरालापन।
 
जब गुनी जन बुरे नहीं होते।
 
सुर तभी हैं कमाल दिखलाते।
 
जब गले बेसुरे नहीं होते।
है किसी में अगर नहीं जौहर।
 
बीर तो वह बना न कर हीले।
 
सूरमापन कभी नहीं पाता।
 
काट सूरन गला भले ही ले।
जो बना जैसा बना वैसा रहा।
 
बन सका कोई बनाने से नहीं।
 
चितवनें तिरछी सदा तिरछी मिलीं।
 
गरदनें ऐंठी सदा ऐंठी रहीं।
सब पढ़े पा सके न पूरा ज्ञान।
 
हैं बहुत से पढ़े लिखे भी लंठ।
 
सुर सबों में दिखा सका न कमाल।
 
कम न देखे गये सुरीले कंठ।
सब दयावान ही नहीं होते।
 
औ सभी हो सके कभी न भले।
 
सैकड़ों ही कठोर हाथों से।
फूल से कंठ पर कुठार चले।
फूल से कंठ पर वु+ठार चले। बात मुँह से तब निकल वै+से कैसे सके। 
जब सती का हाथ लोहू में सने।
 फूट पाये कंठ तब वै+से कैसे भला। 
कंठ-माला कंठमाला जब बने।
क्यों हुनर दिखला न मन को मोह लें।
 
दूसरों के रूप गुन पर क्यों जलें।
 
कोयले से रंग पर ही मस्त रह।
 
हैं निराला राग गातीं कोयलें।
पा सहारा जाति के ही पाँव का।
 
जाति का है पाँव जम कर बैठता।
 
जाति ही है जाति की जड़ खोदती।
 
हाथ ही है हाथ को तो ऐंठता।
ढंग से बचते बचाते ही रहें।
 
बे-बचाये कीन बच पाया कहीं।
 
जो बचावों को नहीं है जानता।
 
ब्योंचने से हाथ वह बचता नहीं।
कौन बैरी हितू किसी का है।
 
है समय काम सब करा लेता।
 
तरबतर तेल से किया जिसने।
 
है वही हाथ सर कतर देता।
कर सकी न बुरा बुरी संगति उसे।
 
दैव दे देता जिसे है बरतरी।
 
बाँह बदबूदार होती ही नहीं।
 
क्यों न होवे काँख बदबू से भरी।
नेक तो नेकियाँ करेंगे ही।
 
क्यों बिपद पर बिपद न हो आती।
 क्या नहीं पाक दूधा दूध देती है। पीप से भर गई पकी छाती?।छाती।
है बुरी रुचि ही बना देती बुरा।
 
क्यों सहें लुचपन भली रुचि-थातियाँ।
 लाड़ दिखला दूधा दूध पीने के समय। 
क्या नहीं लड़के पकड़ते छातियाँ।
भेद वु+छ कुछ छोटे बड़े में है नहीं। 
बान पर-हित की अगर होवे पड़ी।
 
थातियाँ हित की बनी सब दिन रहीं।
 
हों भले ही छातियाँ छोटी बड़ी।
दैव की करतूत ही करतूत है।
 
कब मिटाये अंक माथे के मिटे।
 
आज तक तो एक भी छाती नहीं।
 
हो सकी चौड़ी हथौड़ी के पिटे।
दुख न सब को सका समान सता।
 
मिस गये फूल लौं सभी न मिसे।
 
वह दिया जाय पीस कितना ही।
 
पाँव बनता नहीं पिसान पिसे।
पीसते लोग हैं निबल को ही।
 
गो सबल बार बार खलते हैं।
 
जब गये फूल ही गये मसले।
 
संग को पाँव कब मसलते हैं।
नीच से नीच क्यों न हो कोई।
 
है न ऊँचे टहल-समय टलते।
 
पाँव जब दुख रहे हमारे हों।
 
हाथ तब क्या उन्हें नहीं मलते।
ऐंठ में डूब जो बहुत बहँका।बहका।
क्यों न उस पर भला बिपद पड़ती।
 
जब गई फूल औ चली इतरा।
 
किस लिए तब न पंखड़ी झड़ती।
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