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सच्चे देवते / हरिऔध

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<poem>
मान के ऊँचे महल में पा जिसे। 
सिर उठाये जाति के बच्चे घुसे।
 
आँख जिससे देस की ऊँची हुई।
 
क्यों न आँखों पर बिठायें हम उसे।
जो कि समझें कठोर राहों से।
 
टल गये तो किया मरद हो क्या।
 
उन बिछे सिर धारों के पाँव तले।
 
जो न आँखें बिछीं बिछीं तो क्या।
हो चुके देस पर निछावर जो।
 
स्वाद जो जाति प्यार का चख लें।
 
धूल लें पाँव की लगा उन के।
 
चाहिए आँख पर उन्हें रख लें।
नित बहुत दौड़ धूप जी से कर।
 
जो गिरी जाति को उठा देवें।
 
चाहिए पाँव चाह से उन का।
 
चूम लें आँख से लगा लेवें।
प्यार से पाँव चूम लेवेंगे।
 
धूल सिर पर ललक लगा लेंगे।
 
आइये ऐ मिलाप के पुतले।
 
हम पलक पाँवड़े बिछा देंगे।
हाथ वे ही हाथ हैं जिस हाथ के।
 
चूमने की चाह रखते हों बड़े।
 
पाँव वे ही पाँव हैं जिन के लिए।
 
पाँवड़े कितनी पलक के हों पड़े।
जाति की जान देख जोखों में।
 
जो जसी लोग जान पर खेलें।
 
लालसा लाख बार होती है।
 
हम पलक पर उन्हें ललक ले लें।
क्यों नहीं उन को बिठायें आँख पर।
 
धूल पग की क्यों न आदर साथ लें।
 
जाति जिन के हाथ से ऊँचे उठी।
 
लोग उन को क्यों न हाथों हाथ लें।
पाँव जो हैं जाति के जीवन बने।
 
क्यों न उन की धूल ले लेकर जियें।
 
गल रहा है पाप मल है धुल रहा।
 
क्यों भला धो धो न हम तलवे पियें।
पाँव वह क्यों चाव से चूमें न हम।
 
काठ उकठे छू जिसे फूलें फलें।
 
धूल लगते देखने अंधो लगे।
 
लोग आँखें क्यों न तलवों से मलें।
तब कहाँ सच्ची लगन है लग सकी।
 
प्यार में पग जो न पग देखे भले।
 
क्या बिछाये आँख तब बैठे रहे।
 
आँख बिछ पाई न जब तलवों तले।
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