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अपने दुखड़े / हरिऔध

186 bytes removed, 09:58, 20 मार्च 2014
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<poem>
जब कि जीना न रह गया जीना। 
तब भला है कि मौत ही आती।
 
जब कि उठना बहुत सताता है।
 
आँख तो बैठ क्यों नहीं जाती।
वार करना भी जिन्हें आता नहीं।
 
चल सकी तलवार उन की कब कहीं।
 सिर उठा वै+से कैसे सकेंगे वे भला। 
आँख अपनी जो उठा सकते नहीं।
जब कि दबते गये दबाने से।
 लोग वै+से कैसे न तब दबावेंगे। 
जब कि हम आँख देख लेवेंगे।
 
लोग आँखें न क्यों दिखावेंगे।
दौड़ में सब जातियाँ आगे बढ़ीं।
 
पेट में सबके पड़ी है खलबली।
 
आज भी हम करवटें हैं ले रहे।
 खुल सकीं खोले न आँखें अधाखुली।अधखुली।
काटने से कट न दुख के दिन सके।
 
यों पड़े कब तक रहें काँटों में हम।
 
आज भी जी का नहीं काँटा कढ़ा।
 
है खटकता आँख का काँटा न कम।
रह गई अब न ताब रोने की।
 
दर दुखों का कहाँ तलक मूँदें।
 
कम निचोड़ी गईं नहीं आँखें।
 
आँसुओं की कहाँ मिलें बूँदें।
जाति का दिन फिरा जिन्हें पाकर।
 
जो न फरफंद के रहे नेही।
 
है बिपद फेरफार में फँस कर।
 मुँह पु+लाये फ़ुलाये फिरें अगर वे ही।
सुन सके तो किस तरह से सुन सके।
 
कान में जब तेल ही डाला रहा।
 
खुल सके तो किस तरह से खुल सके।
 
जब किसी मुँह में लगा ताला रहा।
हो बुरा उन कचाइयों का जो।
 
पत उतारे बिना नहीं मुड़तीं।
 
जब हवा आप हो गये हम तो।
 
क्यों न मुँह पर हवाइयाँ उड़तीं।
पेट वै+से कैसे न तब भला ऐंठे। 
जब कि हैं मल भरी हुई आँतें।
 
तो न क्यों जाति पेच में पड़ती।
 
जो रुचीं पेचपाच की बातें।
दिन अगर लाग डाँट में बीतें।
 
तो कटें खींच तान में रातें।
 
आज हैं दिल मिले अलग होते।
 
हैं कहाँ मेल जोल की बातें।
जब कि नामरदी पड़ी है बाँट में।
 
क्यों न तब मरदानपन की जड़ खने।
 तब भला मरदानगी वै+से कैसे रहे। 
मूँछ बनवा जब मरद अमरद बने।
है भला और क्या हमें आता।
 
दूसरी बात और क्या होती।
 
हँस दिये देख सूरतें हँसती।
 
रो दिये देख सूरतें रोती।
किस लिए इस तरह गया पकड़ा।
 
इस तरह क्यों अभाग आ टूटा।
 
जायगा छूट या न छूटेगा।
 
आज तक तो गला नहीं छूटा।
जी गया ऊब कर जतन कितने।
 
जा रहा है बुरी तरह जकड़ा।
 है वु+दिन कुदिन ने बुरी पकड़ पकड़ी। 
है गया बेतरह गला पकड़ा।
जो बुरा हो चाहते, कर लो बुरा।
 
क्या भलाई कर नहीं देगा भला।
 बंधानों बंधनों को खोलते हैं दूसरे। बाँधा बाँध दो जो बाँधा बाँध देते हो गला।
कौन किस की भला पुकार सुने।
 
कौन किस के लिए भला आये।
 
देखते आँख फाड़ फाड़ रहे।
 
हम गला फाड़ फाड़ चिल्लाये।
घिर गये बेतरह बिपत-बादल।
 
मच गई लूट, पत गई लूटी।
 वू+टते कूटते क्यों न तब फिरें छाती। 
फूटते आँख बाँह भी टूटी।
हाल अब तो लिखा नहीं जाता।
 
आज दिन बात है सभी बदली।
 
पक गया जी, बहक गया है मन।
 
थक गया हाथ, घिस गई उँगली।
है जहाँ पर पेट भी पला नहीं।
 
किस तरह सुख से वहाँ कोई जिये।
 
क्यों वहाँ पर चैन मिल पाये जहाँ।
 
है चपत चलता चपाती के लिए।
तब थमेगी किस तरह संजीदगी।
 
थामने से मन न जब थमता रहा।
 
तब हमारी किस तरह चाँदी रहे।
 
जब कि चाँदी पर चपत जमता रहा।
है मुसीबत बेतरह पीछे पड़ी।
 
हैं नहीं सामान बचते साथ के।
 
हाथ मल मल कर न क्योंपछताँयहम।
 
उड़ गये तोते हमारे हाथ के।
टूटने की ब्योंत बहुतेरी हुई।
 पर बुरा बंधान बंधन तनिक टूटा नहीं। 
छूटते तो किस तरह हम छूटते।
 
जब हमारा हाथ ही छूटा नहीं।
बेतरह है गला बँधा अब भी।
 
है न रस्सी कमरबँधी छूटी।
 
पाँव की बेड़ियाँ न खुल पाईं।
 
हथकड़ी हाथ की नहीं टूटी।
टूट पाये न जाल दुखड़ों के।
 
उलझनों के नुचे न झोले हैं।
 
खोलते खोलते पड़े फंदे।
 
पड़ गये हाथ में फफोले हैं।
मन हमारा रहा नहीं बस में।
 
और कस में रही नहीं काया।
 
है इसी से बसर नहीं होती।
 
रह सका हाथ का न सरमाया।
देख करके नौजवानों की बहँक।बहक।
सिरधारों की बात सुन कर अटपटी।
 
देखकर टूटा हुआ दिल जाति का।
 
भाग ही फूटा न, छाती भी फटी।
क्यों भला बेताबियाँ बढ़तीं नहीं।
 
बेतरह लूटे गये, बेढब पिटे।
 
तब भला जी जाय क्यों छितरा नहीं।
 
जब कि छाती में रहें काँटे छिंटे।
हो गये शल हाथ सब तदबीर के।
 
घट गया बल, पड़ गई पीछे बला।
 
हम उबर पाये न सिर के बार से।
 
बोझ छाती का नहीं टाले टला।
उस बहुत ही बुरे बसेरे में।
 
है जहाँ बैर फूट का डेरा।
 जाति को देख बेधाड़क बेधड़क जाते। है कलेजा धाड़क धड़क रहा मेरा।
चाहिए था कि जाति का बेड़ा।
 
रह सजग ढंग से सँभल खेते।
 
देख गिरदाब में गिरा उस को।
 
हैं कलेजा पकड़ पकड़ लेते।
सामने से बहाव जो आया।
 
वह उसी में गई, न पाई थम।
 
देख यह जाति की बड़ी सुबुकी।
 
रह गये थाम कर कलेजा हम।
तब गई कब नहीं उधार ही फिर।
 जब किसी ने उसे जिधार जिधर फेरा। 
जाति का देख बेकलेजापन।
 
है कलेजा निकल पड़ा मेरा।
जाति के पाँचवें सवारों में।
 
और उन में जिन्हें कहें बरतर।
 
देख कर चोट बेतरह चलती।
 
चोट है लग रही कलेजे पर।
हम दुखी हैं कहें कहाँ तक दुख।
 
कब न सूई चुभी नयन तिल में।
 
कब रहे दुख न फूलते फलते।
 
कब कफोले पड़े नहीं दिल में।
आज दिन भी बेतरह हैं पिस रहे।
 
छूटते उन के बतोले हैं नहीं।
 
हैं फफोले पर फफोले पड़ रहे।
 
टूटते दिल के फफोले हैं नहीं।
देख करके चहल पहल अब तो।
 दिल अनायस अनायास है दहल जाता। 
क्यों न सब दुख-सवाल हल होते।
 
दिल हमारा अगर बहल जाता।
वह रहा फूल हो गया काँटा।
 
स्वर्ग से भूत का बना डेरा।
 
लाट था अब गया बहुत ही लट।
 
बल पड़े दिल उलट गया मेरा।
है बुरी चाट लग गई जी को।
 
बेतरह है कचट कचट जाता।
 हो गया है उचाट वु+छ कुछ ऐसा। 
आज दिल है उचट उचट जाता।
क्या अभी अब नहीं खिलेगा वह।
 
फूल सुख का न खिल सका मेरा।
 
खा बुरी चोट दुख-चपेटों की।
 
हो गया चूर चूर दिल मेरा।
है कलेजा निकल रहा मेरा।
 
हैं लहू घूँट इन दिनों पीते।
 
काटते हैं बड़े दुखों से दिन।
 
पेट हम काट काट हैं जीते।
भीख माँगे हमें नहीं मिलती।
 
रह गये हाथ में नहीं पैसे।
 
आग है लग गईं कमाई में।
 पेट की आग बुझ सके वै+से।कैसे।
पेट पापी नहीं कराता क्या।
 
सोच लें बल निकालनेवाले।
 
पालना पेट तो पड़े ही गा।
 
क्या करें पेट पालनेवाले।
आँख उठती नहीं उठाये भी।
 
मुँह बहुत ही सहम सिये हम हैं।
 
रात दिन पेट थाम कर अपना।
 
दौड़ते पेट के लिए हम हैं।
कब दुखी-दुख सुखी समझता है।
 
मतलबी लोग हैं न यम से कम।
 
रह गये हैं न देखनेवाले।
 
पेट अपना किसे दिखायें हम।
देखता कोई दुखी का दुख नहीं।
 
मूँद आँखों को दिया आराम ने।
 
आज दिन है माँगना खलता बहुत।
 
हम खलायें पेट किस के सामने।
तरबतर हो आँसुओं से बेतरह।
 
कब हमारी बेकसी रोई नहीं।
 पीठ वै+से कैसे लग नहीं जाती भला। 
है हमारी पीठ पर कोई नहीं।
जातिहित के बड़े कठिन पथ में।
 
कब ठहर वह सका ठिकाने से।
 
टल गया टालटूल कर कितने।
 
टिक सका पाँव कब टिकाने से।
सब सुखों के हमें पड़े लाले।
 है वु+दिन कुदिन ने न कौन डाले बल। 
है न कल मिल रही कसाले सह।
 
घिस गये पाँच कोस काले चल।
हित न हो पाया गया चित हो दुचित।
 
आँख से आँसू छगूना नित छना।
 
कोस काले चल कलेजा हिल गया।
 
पाँव काँटों से छिले छलनी बना।
काहिली भागी भगाने से नहीं।
 
है नहीं जीवट जगाने से जगी।
 
तूल हो दुख तिल गया है ताल बन।
 
है हमें तब भी न तलवों से लगी।
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