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बेवायें / हरिऔध

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<poem>
जाति का नास बेतरह न करें। 
दें बना बेअसर न सेवायें।
 
जो न बेहद उन्हें दबायें हम।
 
तो बबायें बनें न बेवायें।
थे उपज पाये दयासागर जहाँ।
 
अब निरे पत्थर उपजते हैं वहाँ।
 
है कलेजा तो हमारे पास ही।
 
पास बेवों के कलेजा है कहाँ।
मर्द चाहें माल चाबा ही करें।
 
औरतें पीती रहेंगी माँड़ ही।
 
क्यों न रँड़ुये ब्याह कर लें बीसियों।
 
पर रहेंगी राँड़ सब दिन राँड़ ही।
खीज बेबस और बेवों पर अबस।
 
हम गिरा देवें भले ही बिजलियाँ।
 
पर समझ लेवें किसी की भी सदा।
 
रह सकीं घी में न पाँचों उँगलियाँ।
हम नहीं आज भी समझ पाये।
 
जाति की किस तरह करें सेवा।
 
हो बहुत बंस क्यों न बेवारिस।
 
जब कि बेवा बनी रहें बेवा।
जाति जिस से चल बसा है चाहती।
 आज भी छूटीं वु+चालें कुचालें वे कहाँ। 
क्यों वहाँ होंगे न लाखों दुख खड़े।
 
लाखहा बेवा बिलखती हों जहाँ।
जब कि बेवों का न बेड़ा पार कर।
 
बेसुधी की धार में हैं बह चुकी।
 
आज दिन भी जाग जब सकती नहीं।
 
जाति जीती जागती तो रह चुकी।
क्यों न दुख पाँव तोड़कर बैठे।
 
क्यों वहाँ हो न मौत की सेवा।
 
एक दो क्या, जहाँ बहुत सी हों।
 
चार या पाँच साल की बेवा।
जब नहीं आबाद बेवायें हुईं।
 
तब भला हम किस तरह आबाद हों।
 
क्यों भला बरबाद होवेंगे न हम।
 
बेटियाँ बहनें अगर बरबाद हों।
किस तरह से जाति बिगड़ेगी न तो।
 
जब कि बेवायें बिगड़ती ही रहें।
 
हद हमारी बेहयाई की हुई।
 
जो कसाला बेटियाँ बहनें सहें।
जाति वै+से कैसे भला न डूबेगी। 
किस लिए वह न जाय दे खेवा।
 
जब नहीं सालती कलेजे में।
 
चार औ पाँच साल की बेवा।
आज बेवा हिन्दुओं की हीन बन।
 
दूसरों के हाथ में है पड़ रही।
 
जन रही है आँख का तारा वही।
 
जो हमारी आँख में है गड़ रही।
लाज जब रख सके न बेवों की।
 
तब भला किस तरह लजायें वे।
 
घर बसे किस तरह हमारा तब।
 
और का घर अगर बसायें वे।
गोद में ईसाइयत इसलाम की।
 
बेटियाँ बहुयें लिटा कर हम लटे।
 
आह ! घाटा पर हमें घाटा हुआ।
 
मान बेवों का घटा कर हम घटे।
जो बहँक बहक बेवा निकलने लग गई। 
पड़ गया तो बढ़तियों का काल भी।
 
आबरू जैसा रतन जाता रहा।
 
खो गये कितने निराले लाल भी।
देखता हूँ कि जाति डूबेगी।
 है जमा नित्ता नित हो रहा आँसू। 
लाखहा बेगुनाह बेवों की।
 
आँख से है घड़ों बहा आँसू।
रंज बेवों का देखती बेला।
 
बैठती आँख, टूटती छाती।
 
जो न रखते कलेजे पर पत्थर।
 
आँख पथरा अगर नहीं जाती।
</poem>
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