भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

Changes

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

बसंत की बेलि / हरिऔध

1,708 bytes added, 10:16, 2 अप्रैल 2014
'{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=अयोध्या सिंह उपाध्याय ‘हरिऔध’ |अ...' के साथ नया पन्ना बनाया
{{KKGlobal}}
{{KKRachna
|रचनाकार=अयोध्या सिंह उपाध्याय ‘हरिऔध’
|अनुवादक=
|संग्रह=चोखे चौपदे / अयोध्या सिंह उपाध्याय ‘हरिऔध’
}}
{{KKCatKavita}}
<poem>
खिल दिलों को हैं बहुत बेलमा रहीं।
हैं फलों फूलों दलों से भर रही।
खेल कितने खेल प्यारी पौन से।
बेलियाँ अठखेलियाँ हैं कर रही।

बेलियों में हुई छगूनी छबि।
बहु छटा पा गया लता का तन।
फूल फल दल बहुत लगे फबने।
पा निराली फबन फबीले बन।

है लुनाई बड़ी लताओं पर।
है चटकदार रंग चढ़ा गहरा।
लह बड़े ही लुभावने पत्ते।
लहलही बेलि है रही लहरा।

फूल के हार पैन्ह सज धाज कर।
बन गई हैं बसंत की दुलही।
हो लहालोट, हैं रही लहरा।
लहलही बेलियाँ लता उलही।

पा छबीला बसंत के ऐसा।
क्यों न छबि पा लता छबीली हो।
बेलियाँ क्यों बनें न अलबेली।
फूल फल फैल फब फबीली हो।
</poem>
Delete, Mover, Reupload, Uploader
1,983
edits