भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

Changes

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

महरी / रंजना जायसवाल

2,130 bytes added, 05:51, 3 अप्रैल 2014
'{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=रंजना जायसवाल |अनुवादक= |संग्रह= }} ...' के साथ नया पन्ना बनाया
{{KKGlobal}}
{{KKRachna
|रचनाकार=रंजना जायसवाल
|अनुवादक=
|संग्रह=
}}
{{KKCatKavita}}
<poem>
भयंकर सर्दी है
छाया है कुहासा
अँधेरा है
पसरा है सन्नाटा चारों ओर
हो चुकी है सुबह जाने कब की
झल्ला रही है गृहिणी
नहीं आई अभी तक महरी
करना पड़ेगा उठकर
इस ठंडी में काम
मनबढ़ हो गए हैं ये छोटे लोग
चढ़ गया है बहुत दिमाग
जब से मिला है आरक्षण

सो रही होगी पियक्कड़ मर्द के साथ गरमाकर
तभी तो बियाती है हर साल
कालोनी के हर घर में
वही झल्लाहट है ..कोसना है
जहाँ-जहाँ करती है महरी काम


किसी के मन नहीं आ रहा
कि महरी भी है हाड़-मांस की इन्सान
उसके भी होंगे कुछ अरमान
मन भाया होगा देर तक रजाई में लेटना
सर्दी से मन जरा अलसाया होगा

हो सकता है आ गया हो उसे बुखार
या किसी बच्चे की हो तबियत खराब

गृहणियों को अपनी–अपनी पड़ी है
काम के डर से उनकी नानी मरी है

निश्चिन्त हूँ कि नहीं आती मेरे घर कोई महरी
घर की महरी खुद हूँ
हालाँकि इस वजह से पड़ोसिनों से
थोड़ी छोटी है मेरी नाक
सोचती हूँ कई बार
</poem>
Delete, Mover, Reupload, Uploader
1,983
edits