भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
Changes
Kavita Kosh से
<poem>
विधु-बदनी श्रीराधिके! मेरी जीवन-मूल।
तेरे विषम वियोगकी वियोग की चुभी हृदयमें हृदय में शूल॥
असहनीय अति वेदना, छिपा न रक्खी जाय!
कहना भी सभव संभव नहीं, हुआ निपट असहाय॥
पूर्वपुण्य-परिपाक से पाऊँ निभृत अरण्य।
पथिक-रहित पथ, जो कभी दीर्घकाल तक शून्य॥