भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

Changes

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

अनब्याही औरतें / अनामिका

3,166 bytes added, 08:10, 4 अप्रैल 2014
'{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=अनामिका |अनुवादक= |संग्रह= }} {{KKCatKavita}} ...' के साथ नया पन्ना बनाया
{{KKGlobal}}
{{KKRachna
|रचनाकार=अनामिका
|अनुवादक=
|संग्रह=
}}
{{KKCatKavita}}
<poem>
"माई री मैं कासे कहूँ पीर अपने जिया की, माई री!"
जब भी सुनती हूँ मैं गीत, आपका मीरा बाई,
सोच में पड़ जाती हूँ, वो क्या था
जो माँ से भी आपको कहते नहीं बनता था,

हालांकि संबोधन गीतों का
अकसर वह होती थीं!

वर्किंग विमेन्स हॉस्टल में पिछवाड़े का ढाबा!
दस बरस का छोटू प्यालियाँ धोता-चमकाता
क्या सोचकर अपने उस खटारा टेप पर
बार-बार ये ही वाला गीत आपका बजाता है!

लक्षण तो हैं उसमें
क्या वह भी मनमोहन पुरुष बनेगा,
किसी नन्ही-सी मीरा का मनचीता.
अड़ियल नहीं, ज़रा मीठा!

वर्किंग विमेन्स हॉस्टल की हम सब औरतें
ढूँढती ही रह गईं कोई ऐसा
जिन्हें देख मन में जगे प्रेम का हौसला!

लोग मिले - पर कैसे-कैसे -
ज्ञानी नहीं, पंडिताऊ,
वफ़ादार नहीं, दुमहिलाऊ,
साहसी नहीं, केवल झगड़ालू,
दृढ़ प्रतिज्ञ कहाँ, सिर्फ जिद्दी,
प्रभावी नहीं, सिर्फ हावी,
दोस्त नहीं, मालिक,
सामजिक नहीं, सिर्फ एकांत भीरु
धार्मिक नहीं, केवल कट्टर


कटकटाकर हरदम पड़ते रहे वे
अपने प्रतिपक्षियों पर -
प्रतिपक्षी जो आखिर पक्षी ही थे,
उनसे ही थे.
उनके नुचे हुए पंख
और चोंच घायल!

ऐसों से क्या खाकर हम करते हैं प्यार!
सो अपनी वरमाला
अपनी ही चोटी में गूंथी
और कहा खुद से -
"एकोहऽम बहुस्याम"

वो देखो वो -
प्याले धोता नन्हा घनश्याम!
आत्मा की कोख भी एक होती है, है न!
तो धारण करते हैं
इस नयी सृष्टि की हम कल्पना

जहाँ ज्ञान संज्ञान भी हुआ करे,
साहस सद्भावना!
</poem>
Delete, Mover, Reupload, Uploader
1,983
edits