भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

Changes

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज
कहता है पका हुआ फल
देह नहीं है मेरी सीमा
मुझसे है आगामी कल |
चुभो रहे हैं जैसे पिन
ले जाए मेरे पल छिन
स्वागत में आया मेरे
समय लिए त्यौरी पर बल|
हठयोगी तरु का मैं व्रत
पूर्णकाम है यह तन श्लथ
साथ -साथ चलते हैं अब
ऋतुओं के जितने तीरथ
रस अब तो पंचामृत है
भाव हो गये गए तुलसी दल|
अंतहीन खुशबू अन्तहीन ख़ुशबू का छोर
मंजरियों पर उगती भोर
धुंधली धुँधली आँखों देखा है रंग चढ़ी रेशे कि की डोर
फिर होगी धरती सुफला
सांचे साँचे में धूप रही ढल|
</poem>
Delete, Mover, Protect, Reupload, Uploader
54,226
edits