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माया-दर्पण / श्रीकांत वर्मा

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<poem>
देर से उठकर
छत पर सर धोती
खड़ी हुई है
देखते-ही-देखते
बड़ी हुई है
मेरी प्रतिभा
लड़ते-झगड़ते
मैं आ पहुँचा हूँ
उखड़ते-उखड़ते
भी
मैंने
रोप ही दिए पैर
बैर
मुझे लेना था
पता नहीं
कब क्या लिया था
क्या देना था!
अपना एकमात्र इस्तेमाल यही किया था -
एक सुई की तरह
अपने को
अपने परिवार से निकालकर
तुम्हारे जीर्ण जीवन को सिया था।
(दोनों हाथों में सँभाल
अपने होठों से
छुलाकर)
बहते हुए पानी में झुलाकर
अपने पाँव
मैं अनुभव कर रहा हूँ सबकुछ
बस छूकर
चला जाता है
छला जाता है
आकाश भी
सूर्य से
जो दूसरे दिन
आता नहीं है
कोई और सूर्य भेज देता है।

विजेता है
कौन
और
किसकी पराजय है -
सारा संसार अपने कामों में
फँसाए अपनी उँगलियाँ
उधेड़बुन करता है।
डरता है
मुझसे
मेरा पड़ोस।

मैं अपनी करतूतों का दरोगा हूँ।
नहीं, एक रोजनामचा हूँ
मुझमें मेरे अपराध
हू-ब-हू कविताओं-से
दर्ज हैं।
मर्ज हैं
जितने
उनसे ज्यादा इलाज हैं।
मेरे पास है कुछ कुत्ता-दिनों की
छायाएँ
और बिल्ली-रातों के
अंदाज हैं।

मैं इन दिनों और रातों का
क्या करूँ?
मैं अपने दिनों और रातों का
क्या करूँ?
मेरे लिए तुमसे भी बड़ा
यह सवाल है।
यह एक चाल है;
मैं हरेक के साथ
शतरंज खेल रहा हूँ
मैं अपने ऊलजलूल
एकांत में
सारी पृथ्वी को बेल रहा हूँ।

मैं हरेक नदी के साथ
सो रहा हूँ
मैं हरेक पहाड़
ढो रहा हूँ।
मैं सुखी
हो रहा हूँ
मैं दुखी
हो रहा हूँ
मैं सुखी-दुखी होकर
दुखी-सुखी
हो रहा हूँ
मैं न जाने किस कंदरा में
जाकर चिल्लाता हूँ : मैं
हो रहा हूँ। मैं
हो रहा हूँऽऽ

अनुगूँज नहीं जाती!
लपलपाती
मेरे पीछे
चली आ रही है।
चली आए।
मुझे अभी कई लड़कियों से
करना है प्रेम
मुझे अभी कई कुंडों में
करना है स्नान
अभी कई तहखानों की
करनी है सैर
मेरा सारा शरीर सूख चुका
मगर साबित हैं
पैर!
मैं अपना अंधकार, अपना सारा अंधकार
गंदे कपड़ों की
एक गठरी की तरह
फेंक सकता हूँ।
मैं अपनी मार खाई हुई
पीठ
सेंक सकता हूँ
धूप में
बेटियाँ और बहुएँ
सूप में
अपनी-अपनी
आयु के
दाने
बिन
रही
हैं।
सारे संसार की सभ्यताएँ दिन गिन रही हैं।
क्या मैं भी दिन गिनूँ?
अपने निरानंद में
रेंक और भाग और लीद रहे हैं गधे से
मैं पूछकर
आगे बढ़ जाता हूँ -
मगर खबरदार! मुझे कवि मत कहो।
मैं बकता नहीं हूँ कविताएँ
ईजाद करता हूँ
गाली
फिर उसे बुदबुदाता हूँ।
मैं कविताएँ बकता नहीं हूँ।
मैं थकता नहीं हूँ
कोसते।
सरदी में अपनी संतान को
केवल अपनी
हिम्मत की रजाई में लपेटकर
पोसते
गरीबों के मुहल्ले से निकलकर
मैं
एक बंद नगर के दरवाजे पर
खड़ा हूँ।
मैं कई साल से
पता नहीं अपनी या किसकी
शर्म में
गड़ा हूँ!
तुमने मेरी शर्म नहीं देखी!
मैं मात कर
सकता हूँ
महिलाओं को।
मैं जानता हूँ
सारी दुनिया के
बनबिलावों को
हमेशा से जो बैठे हैं
ताक में
काफी दिनों से मैं
अनुभव करता हूँ तकलीफ
अपनी
नाक में!
मुझे पैदा होना था अमीर घराने में।

अमीर घराने में
पैदा होने की यह आकांक्षा
साथ-साथ
बड़ी होती है।
हरेक मोड़ पर
प्रेमिका की तरह
मृत्यु
खड़ी होती है।

शरीरांत के पहले
मैं सबकुछ निचोड़कर उसको दे जाऊँगा
जो भी मुझे मिलेगा।
मैं यह अच्छी तरह जानता हूँ
किसी के न होने से कुछ भी नहीं होता;
मेरे न होने से कुछ भी नहीं हिलेगा।
मेरे पास कुरसी भी नहीं जो खाली हो।
मनुष्य वकील हो, नेता हो, संत हो, मवाली हो -
किसी के न होने से
कुछ भी नहीं होता।
नाटक की समाप्ति पर
आँसू मत बहाओ।
रेल की खिड़की से
हाथ मत हिलाओ।</poem>
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