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Kavita Kosh से
शोभा बनेंगे ,
किसी आक्रमणकारी राजा के दरबार की!
हाँ,
एक मातमी गीत अपने अजन्मे बच्चे के लिए
तुम्हारी हिचकियों की लय पर!
हाँ
मैं बुनूँगा सपने,
तुम्हारे अन्तः वस्त्रों के चटक रंग धागों से!
पर इससे पहले कि उस दिवार दीवार पर-:::जहाँ धुंध की तरह दिखते हैं तुम्हारे बिखराए बादल:::जिनमें से झांक रहा हैं एक दागदार चाँद!:::वहीं दूसरी तस्वीर में:::किसी राजसी हाथी के पैरों तले है दार्शनिक का सर!
-मैं टांग दूँ अपना कवच,
कह आओ मेरी माँ से कि वो कफ़न बुने,