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उस पार / विपिन चौधरी

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दुःख के उस पार भी क्या
कोई शमशानी बस्ती है

क्या वहां भी कोई औरत
अपने लम्बे बाल संवारते हुए
अपने पुराने दिनों की मधुर यादों में उलझ गयी है

मूंज की चारपाई के
पायों से बांधे गए दुपट्टे के झूले में
अंगूठा चूस रही है भूखी बच्ची

चूल्हों से उठती हुई भांप
आधे भरे हुए पेट में मरोड़ उठा रही है
माँ की सुखी छाती से कुपोषित बच्चा चिपका हुआ है


एक बड़े आत्मघाती विस्फोट के बाद
इधर-उधर पड़े हुए लोग अपने शरीर के उड़ते हुए अंगों को भौचक
देख रहे है

शहर की चमचमाते चौराहे पर
पागल युवा स्त्रियाँ निवस्त्र बैठी हुई है
उधर मंडराते हुए लंपट युवा
खिल्ली उड़ाते घूम रहे हैं

नयी नवेली दुल्हनों की आंखे लम्बे इन्जार में बाद
मूँद गयी है

उस पार भी क्या
प्यार एक मृगतृष्णा है
उम्मीद एक धोखा

क्या दुःख के उस पार भी
केवल दुःख ही है?
</poem>
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