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|रचनाकार=विपिन चौधरी
|अनुवादक=
|संग्रह=
}}
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<poem>
लोकतंत्र का एक बड़े से पंडाल में
दंगों के बाद प्रदेश का जायजा लेने आये हैं
दूल्हे ही तरह सजे हमारे प्रधानमंत्री जी
बल्लियों के उस पार
खुद में डूबी जनता है
प्रधानमंत्री के एकरस चेहरे को देख
पीड़ित ठिठकते हैं
लेकिन रुलाई लय को तोड़ कर उमड़ पड़ती है
शोक के दलदल में पूरी तरह डूबे लोग सुबकने लगते हैं
एक दो जन रुंधे गले से बड़बडाने लगते हैं
दंगे
पुलिस
पिटाई
लूट
बलवाई
उनकी कराह से प्रधानमंत्री एक दो पल को द्रवित होते हैं
पर भीतर की तरलता बाहर नहीं झलकती
एक कन्धा धपधपा कर प्रधानमंत्री आगे चल देते हैं
फिर एक ठौर रुकते हैं
शायद दुखड़ा रोने कोई इस बल्ली के करीब आये
इस बार जनता
फटी आँखों से दूर खड़ी उन्हें देखती है
प्रधानमंत्री फिर दाईं तरफ देखते हैं
एक दो कदम चलते हैं
फिर देखते हैं
इस समय जनता की यह चुप्पी प्रधानमंत्री को खलती जरूर होगी
कोई उन्हें बताये
इस जनतंत्र में जुबान भी किसी- किसी के पास है
वरना तो इस देश में सब
आपकी तरह चुप्पी को अपने बगल में लिए चलते हैं
और सही वक़्त आने पर अपनी वाक् शक्ति खो चुके होते हैं
</poem>
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लोकतंत्र का एक बड़े से पंडाल में
दंगों के बाद प्रदेश का जायजा लेने आये हैं
दूल्हे ही तरह सजे हमारे प्रधानमंत्री जी
बल्लियों के उस पार
खुद में डूबी जनता है
प्रधानमंत्री के एकरस चेहरे को देख
पीड़ित ठिठकते हैं
लेकिन रुलाई लय को तोड़ कर उमड़ पड़ती है
शोक के दलदल में पूरी तरह डूबे लोग सुबकने लगते हैं
एक दो जन रुंधे गले से बड़बडाने लगते हैं
दंगे
पुलिस
पिटाई
लूट
बलवाई
उनकी कराह से प्रधानमंत्री एक दो पल को द्रवित होते हैं
पर भीतर की तरलता बाहर नहीं झलकती
एक कन्धा धपधपा कर प्रधानमंत्री आगे चल देते हैं
फिर एक ठौर रुकते हैं
शायद दुखड़ा रोने कोई इस बल्ली के करीब आये
इस बार जनता
फटी आँखों से दूर खड़ी उन्हें देखती है
प्रधानमंत्री फिर दाईं तरफ देखते हैं
एक दो कदम चलते हैं
फिर देखते हैं
इस समय जनता की यह चुप्पी प्रधानमंत्री को खलती जरूर होगी
कोई उन्हें बताये
इस जनतंत्र में जुबान भी किसी- किसी के पास है
वरना तो इस देश में सब
आपकी तरह चुप्पी को अपने बगल में लिए चलते हैं
और सही वक़्त आने पर अपनी वाक् शक्ति खो चुके होते हैं
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