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|रचनाकार=घनानंद
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 तब तौ छबि पीवत जीवत है अब सोचन लोचन जात जरे . हित-पोष के तोष सुप्राण पले बिललात महादुख दोष भरे . ‘घनआनन्द’ मीत सुजान बिना सबही सुखसाज समाज टरे . तब हार पहाड़ से लागत है अब आनि के बीच पहार परे .   
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