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|रचनाकार=घनानंद
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तब तौ छबि पीवत जीवत है अब सोचन लोचन जात जरे
‘घनआनन्द’ मीत सुजान बिना सबही सुखसाज समाज टरे
तब हार पहाड़ से लागत है अब आनि के बीच पहार परे.
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