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Kavita Kosh से
वह आता है
सड़कों पर ठेले में
भरी दोपहर और तेज धूप में
पसीने से तर -बतर
जलती है देह
ठेले पर नहीं है पानी से भरी
वह आता है
कोयले की खदानों से
बीस मंजिला इमारत में
पेट में जलती आग लिए
डामर की टूटी सड़कों पर
कतारबद्ध, तसला, गिट्टी, बेलचा
जलते पैरों से होगा हमारी खातिर
वह दिन भर
दुर्गन्ध में कुनमुनाता
बोझ से दबा हुआ
वह सृजनकर्ता है
दुख सहके भी सुख बांटताबाँटता
भूख को पटकनी देता
वह हमारी खातिर तपता है