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साँचा:KKPoemOfTheWeek

200 bytes added, 18:04, 4 मई 2014
<div style="font-size:120%; color:#a00000; text-align: center;">
तुम सामने आते हो पहलू बदल बदल करविद्वान का ढेला</div>
<div style="text-align: center;">
रचनाकार: [[सुरेश सलिलताद्युश रोज़ेविच]]
</div>
<div style="border: 1px solid #ccc; box-shadow: 0 0 10px #ccc inset; font-size: 16px; line-height: 0; margin: 0 auto; min-height: 590px; padding: 20px 20px 20px 20px; white-space: pre;"><div style="float:left; padding:0 25px 0 0">[[चित्र:Kk-poem-border-1.png|link=]]</div>
तुम सामने आते हो पहलू बदल-बदल करइस कविता को बिजली-सी गिराते हो पहलू बदल-बदल करसुला देना चाहिए
इस आइने में देखूँ - उस आइने में देखूँइसके पहले कि शुरू हो इसका विद्वान होना इसके पहले कि कुछ राज़ छिपाते यह कविता शुरू हो पहलू बदल-बदल कर
पहलू बदल-बदल कर इक़रार-ए-इश्क़ कैसाइसके पहले कि उँगली पे' नचाते यह तारीफ़ें बटोरे किसी विस्मरण के पल में यह जीवित हो, पहलू बदल-बदल कर
तुमको ही रिझाने को, ये सारी ग़ज़लगोईइसके पहले कि हर शे'र में अपनी ओर आते शब्दों और आँखों की यह अभ्यस्त हो, पहलू बदल-बदल कर
इर्शाद-ओ-मुक़र्रर की उम्मीद कौन बाँधेइसके पहले कि जब शमअ हटाते हो, पहलू बदल-बदल करयह विद्वानों के उपदेश लेना शुरू करे
गुज़रने वाले राहगीर कतराकर गुज़र जाते हैं कोई भी नहीं उठाता वह विद्वान ढेला  उस ढेले के भीतर एक नन्हीं-सी,सफ़ेद,नंगी कविता जलती रहती है  राख हो जाने तक ।  (रचनाकाल : 2002-2003)
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