भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
Changes
Kavita Kosh से
यह विचित्र परिपाटी,
पुरूष पूत है लोहा पक्का
वह कुम्हार की माटी ,
’बूँद पड़े पर गल जायेगी’
यही सोचकर बढ़ती,
यही पाठ पढ़ पाती,
भाई लालटेन
बहना ढिवरी की इक बाती ,
’फूँक लगे पर बुझ जाये’
वह इसी सोच में पलती ,
ठोस बड़ी कन्दील सरीखी
बूँद-बूँद सी गलती
प्याले शीशे पत्थर के वे,
वह माटी का कुल्हड़ ,
उसके जूठे होने का
हर वक्त मनाएँ हुल्लड़
सदा हुई भयभीत पुरूष से,
पुरूष ओट वह रखती ,
सीता-सी, रावण-पुरूषों के
बीच सदा तृण रखती ।रखती।
</poem>