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|रचनाकार=हरिचरण अहरवाल ‘निर्दोष’
|संग्रह=मंडाण / नीरज दइया
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<Poem>दो टूक जवाब
ज्ये मल जातो
राजी अर बेराजी
हां अर ना को
तो क्हांमी होती काळी
हजारूं रातां
अर न्हं न्हाळणी पड़ती बाट
ऊग्यां सूं आश्यां तांई थांकी
पाछी मुड़’र झांकबा की
पाछा आबा की।
पण बना बोल्यां
सुन्न सूं ही ख’ड़ जाबो तो
खटकै छै आठूं पहर।
आथण-सवार हो जावै छै
मन उदास
ऊं अणबोल्या अर अणदेख्या
अर बना कौल कर्यां गया
बटाऊ क लेख
पंखेरू बी आ बैठै छै
ऊ डाळ पे
भूल्या-भटक्या
कदी-कदी
पण गजब ही कर दी
कोई दन आ’र पाड़ो हेलो
बुलावो हाथ को झालो दे’र
म्हंई घणो बढिया लागगो,
हो सकै थांई बी।</poem>
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