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<poem>
धूप में
बढ़ाती हूँ
अपनी आत्मा की अग्निगर्भी दीप्ति
तुम तक पहुँचती हूँ तुम्हारे लिए।

अक्षय प्रणय प्रकाश
तुम्हारी मन-खिड़की से
पहुँचता होगा निकट से निकटतर
कि नैकट्य की
नूतन परिभाषाएँ रचती होंगी
तुम्हारी अतृप्त आत्मा।

वृक्ष को सौंपती हूँ
वृक्ष की अंतस अनुभूतियाँ
अपनी धड़कती आकांक्षाएँ
जो तुम तक
मेघदूत बन
पहुँचता है
गहरी आधी रात गए।
</poem>
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