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हम दोनों / पुष्पिता

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विदेश प्रवास में
हम दोनों प्रवासी शब्द की तरह हैं
हेमचन्द्र के शब्दानुशासन से परे
पाणिनी के अष्टाध्यायी-व्याकरण से दूर
शब्दकोष से परे
आखिर,
मैं और तुम
शब्द ही तो हैं

शब्दों में साँस लेती हुई धड़कने
नवातुर अर्थ के लिए आकुल
सघन-घन-कोश में
आँखें पलटती हैं मेघों को पृष्ठ-दर-पृष्ठ
कभी फूलों के पन्नों को उलट-उलट
सूँघती हैं सुगंध का रहस्य
कभी सूरीनाम और कमोबेना नदियों से
पूछती है अनथक प्रवाह का अनजाना रहस्य

हम दोनों
'प्रवासी' शब्द की तरह हैं
अधीर और व्याकुल
अंतःकरण के वासी
नाम
शब्दों की तरह
ओठों की मुलायम धरती पर खेलते हैं
स्नेह-पोरों से पलते हुए बढ़ते हैं शब्द
समय में समय का
हिस्सा बन जाने के लिए
अंश में अंशी की तरह
रहते हैं शब्द
जैसे विदेश में
समाया रहता है स्वदेश
जैसे मुझमें बसा रहता है
तुम्हारा आत्मीय अर्थ-बोध।
</poem>
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