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भोजपत्र पर / पुष्पिता

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देह के भोजपत्र पर
सांसें और स्पर्श लिखते हैं
प्रणय का अमिट महाकाव्य

ओठ छूट गये हैं मेरे अधरों में
अपने निर्मल और ऊष्म स्पर्श के साथ

तुम्हारे जाने के बाद
एक आदमक़द आईने में
बदल चुकी हूँ मैं।

पृथ्वी का संपूर्ण प्रेम
उमड़ आता है
मेरे भीतर
तुम्हारे होने पर
कि पृथ्वी के सारे रत्न
अंजलि में होते हैं झिलमिलाते

आँखों में
रहते हो रात-दिन
अक्षय स्वप्नों के लिए

सपनों तक
पहुँचने का रास्ता
ओठों ने खींचा है
मन की धरती पर

देह-भीतर रचते हो
प्रेम की पृथ्वी
खोलते हो देह
जैसे गेह द्धार

प्रणयातुर नयन
खेलते हैं पर्वत श्रृंखला से
हथेलियाँ भर उठती हैं देह-रेत से
और रचती हैं घरौंदे सपनों के

हथेलियाँ
सिद्ध करना चाहती हैं
साधना का सहज रसावेग

अंतरंग के कैलाश पर्वत पर
देह जानती है
विदेह होने का
सरस-आत्मीय सुख

गुप्त गोदावरी के
अंतस्थल में
रखते हो अपनी अमृत बूँद
प्रणय की पुनर्सृष्टि …।
</poem>
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