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कथा / पुष्पिता

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<poem>
देखते-देखते सूख गया पेड़
देखते-देखते कट गया पेड़
कई टुकड़ों में
जैसे चिता में जल जाती है
मानव देह
देखते-देखते।

वृक्षों के नीचे की
सूख गई धरती
जड़ों को नहीं मिला
धरती का दूध।

हवा-धूप और बरसात के बावजूद
वृक्ष नहीं जी सकता धरती के बिना।

वृक्ष!
धरती का संरक्षक था जैसे
सूनी हो गई है धरती पेड़ के बिना
उठ गया है जैसे पर्यावरण का पहरुआ।

घर के बाहर सदा बैठा
घर का वयोवृद्ध सदस्य
बिना पूछे अचानक
जैसे छोड़ गया हमें

वह देखता था हमें

कंधों पर कबूतर
करते थे उसके कलरव
उसकी बाँहों में लटकती थी झरी बर्फ
उसकी देह को भिगोती थी बरसात।

ठंडी हवाओं को अपनी छाती पर रोककर
बचाता था वह हमें और हमारा घर
उसकी छाया जीती थी हमारी आँखें
हम अकेले हो गए हैं
जैसे हमारे भीतर से कुछ उठ गया हो।

कटे वृक्ष की जगह
आकाश ने भर दी है
सूर्य किरणों ने वहाँ
अपनी रेखाएँ खींच दी हैं
धूप ने अपना ताप
भर दिया है वहाँ।

फिर भी
एक पेड़ ने हमें छोड़कर
न भरने वाली जगह
खाली कर दी है।
</poem>
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