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|रचनाकार=पुष्पिता
|अनुवादक=
|संग्रह=
}}
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<poem>
हवाओं में
होती है आवाज़
अपने समय को जगाने की।
चुप रहने वालों के खिलाफ़
बवंडर उठाने की।
हवाएँ
चुपचाप ही
आँधी बन जाती हैं।
हवाएँ
बिना शोर के
तूफ़ान ले आती हैं।
हवाएँ
हमेशा पैदा करती हैं आवाज़
प्रकृति के पर्यावरण को
हवाएँ पोंछती हैं
अपनी अलौकिक हथेली से।
हवाएँ गूँजती हैं धरती में
जैसे देह में साँस।
</poem>
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हवाओं में
होती है आवाज़
अपने समय को जगाने की।
चुप रहने वालों के खिलाफ़
बवंडर उठाने की।
हवाएँ
चुपचाप ही
आँधी बन जाती हैं।
हवाएँ
बिना शोर के
तूफ़ान ले आती हैं।
हवाएँ
हमेशा पैदा करती हैं आवाज़
प्रकृति के पर्यावरण को
हवाएँ पोंछती हैं
अपनी अलौकिक हथेली से।
हवाएँ गूँजती हैं धरती में
जैसे देह में साँस।
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