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कोहरा / पुष्पिता

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कोहरा
धुँआई अँधेरा
हवाओं में घुला
अपने में
हवाएँ घोलता
रोशनी को सोखता
कि मौत-सी
लगामहीन तेज भागती कारें
थहा-थहा कर
आंधरों की तरह बढ़ाती हैं
अपने पहिये के पाँव
अंधे की लाठी की तरह
गाड़ियों की हेडलाइट
देखते हुए भी
नहीं देख पाती है कुछ।

कोहरे में डूबे हुए शहर की
रोशनी भी डूब जाती है कोहरे में
सूर्यदेव भी
थहा-थहा कर
ढूँढते हैं अपनी पृथ्वी।
धरती पर
अपनी रोशनी के पाँव
धरने के लिए
ठंडक!

कोहरे की चादर भीतर
सुलगाती है अपना अलाव
सुलगती लकड़ी के ताप से
आदमी जला देना चाहता है
कोहरे की चादर।

पक्षी
कोहरे में भीगते हुए भी
फुलाए रखते हैं
अपने भीतरिया पंख
कोहरे का करते हैं तिरस्कार
पंखों की कोमल गर्माहट से

कोहरा
छीन लेता है
पक्षियों की चहचहाहट का
मादक कोलाहल
स्तब्ध गूँजों और अंधों की तरह
सिकुड़े हुए सिमटे मौन की तरह।

वे खोजते हैं
कोहरे के ऊपर का आकाश
और अपने लिए सूर्य रश्मियाँ
क्योंकि रोशनी के कण
आँखों की भूख के लिए
उजले दाने हैं
जिससे ढूँढ़ते हैं
सुनहरी बालियाँ
पके खेतों की।

कोहरे की ठण्ड में
लोग तापते हैं
लगातार
रगड़-रगड़ कर अपनी ही हथेलियाँ
अलाव की तरह।

हथेलियों की आँच से
सेंकते हैं अपना चेहरा
कोहरे के विरुद्ध।
</poem>
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