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<poem>
सूर्य की चमक में
तुम्हारा ताप है
हवाओं में साँस
पाँखुरी में स्पर्श
सुगंध में पहचान

जब जीना होता है तुम्हें
खड़ी हो जाती हूँ प्रकृति-बीच
और आँखें
महसूस करती हैं तुम्हें
अपने भीतर

अपनी परछाईं में
देखती हूँ तुम्हें ही

मेरी देह
बन चुकी है तुम

प्यार की परछाईं बनकर
धरती पर बिछी हुई हूँ
तुम्हारी देह
छूती है जिसे छाया बनकर
कि परछाईं वाली धरती में
फूट पड़ती हैं वसंत की जड़ें।
</poem>
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