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आत्मीयता / पुष्पिता

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बेआबरू मौसमों की तरह
पड़े हैं सपने
आँखों के कोने में
एकाकी परदेश प्रवास में

सूरज की सेंक में
सुलगते हैं स्वप्न
जिंदगी फिर भी
रचती रहती है नए-नए ख्वाब
विदेशी मित्रों की तरह

अकेले, विदेश में
याद आती हैं सहमी हुई स्मृतियाँ
चाँदनी से भी झरता रहता है अँधेरा
पूर्णिमा की पूरी रात
अकेले में
उदास शब्द के
गहरे अर्थ की तरह

इच्छाएँ तलाशती रहीं
नए पत्ते
जहाँ साँस ले सकें इच्छाएँ
और उनसे जन्म ले सकें
अन्य नवीनतर इच्छाएँ

इच्छाओं के साँचे में
समा जाती हैं जब भी इच्छाएँ
जिंदगी हो जाती है जिंदगी के करीब।
</poem>
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