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कहना / महेश वर्मा

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और जबकि टुकड़ा टुकड़ा संकेतों से भरा है
वह आकाश जहाँ मेरा बेअक्ल सिर मंडरा रहा है
ज़मीन से साढ़े पांच फीट उपर
मैं कुछ भी समझ नहीं पा रहा हूँ

एक संकेत से दूसरे पर
दूसरे से फिर तीसरे, अनंतवें पर बेचैन ततैया जैसी
कूदती मेरी निग़ाह

मैं समझ नहीं पा रहा हूँ

मेरा ह्दय भरा है टुकड़ा टुकड़ा और अलहदा संकेतों से

कई बार तो मैं जनरेटर जैसी ठस मशीन और
सायकिल जैसी शर्मिंदा संरचना के सामने भी खड़ा रह जाता हूँ देर तकः
किसी मुंह से करूँगा धूल और पत्तियों और पानी की बात.
</poem>
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