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जाना / महेश वर्मा

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एक पुराना समझौता है मृतकों के बीच
शोक के विरुद्ध अपरिचय की मुखमुद्रा

मृतक किसी को नहीं पहचानते
सीने पर पछाड़ खाती स्त्री से लेकर
असमंजस के पिंजरे में बैठे पालतू तोते तक: किसी को नहीं

थोड़ा भुलक्कड़ तो वो पहले से थे
यह वाक्य बहुत सुनाई देने लगा है अंतिम यात्राओं में

यह अभेद्य भुलक्कड़पन,
यह चुप्पी भी उसी समझौते का पूर्वाभ्यास
जिसके बारे में पहले कह चुके

थोड़ी ढीली बंधी अर्थी
हाँ ना में सर हिलाते जा रहे हैं वीतराग
भजन-निरगुन,
लाई -ब्राह्मण
सिक्का-छुरी,
घृत और नाई
सबके सिर के ऊपर छत्र सा तन जायेंगे धुंआ होकर
फिर एक ओर चल पड़ेंगे अचानक
जैसी उनकी आदत थी बिना बताये
कि उधर पुराने पार्क में कुछ दोस्त प्रतीक्षा कर रहे हैं।
</poem>
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