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<poem>
ऐसे ही वसंत में चला जाऊँगा,
इन्हीं फटेहाल कपड़ों में जूतों की कीचड़ समेत.
परागकणों की धूल में नथुनों की सुरसुराहट रोकता
ढू़ढ़ने लगूंगा कोई रंग
वहाँ खूब पीला नहीं दिखेगा तो
निराश जूते पर
जमी धूल पर
पीला लिखने के लिये झुकूंगा
रूक जाऊँगा.

किसी उदास वृक्ष की तरह ऐसे ही झुका रहूँगा
किसी दूसरे मौसम में सर उठाऊँगा

कोई पत्ता उठाऊँगा आगे की लू भरी दोपहरों से
धूप के दरवाजे में भी ऐसे ही घुस जाऊँगा

कुछ भी नहीं बदलूंगा कुछ बदलेगी
तो कंधों पर गिरती बारिश ही बदलेगी

बारिश से बाहर कभी नहीं आऊँगा.
</poem>
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