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|रचनाकार=अनिता भारती
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}}
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<poem>
दंगे सिर्फ घर-बार ही नही उजाड़ते
दंगे सिर्फ काम-धंधा ही नही उजाड़ते
दंगे सिर्फ प्यार-स्नेह ही नही तोड़ते
दंगे सिर्फ जान-असबाब ही नही छीनते
दंगों की धार पर चढ़ती है औरतों-बच्चियों की अस्मिताएं
अगर ऐसा ना होता तो
बताओं क्यों
वे निरीह असहाय मादा के सामने
पूरे नंगे हो इशारे से दिखाते है अपना ऐठा हुआ लिंग
</poem>
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दंगे सिर्फ घर-बार ही नही उजाड़ते
दंगे सिर्फ काम-धंधा ही नही उजाड़ते
दंगे सिर्फ प्यार-स्नेह ही नही तोड़ते
दंगे सिर्फ जान-असबाब ही नही छीनते
दंगों की धार पर चढ़ती है औरतों-बच्चियों की अस्मिताएं
अगर ऐसा ना होता तो
बताओं क्यों
वे निरीह असहाय मादा के सामने
पूरे नंगे हो इशारे से दिखाते है अपना ऐठा हुआ लिंग
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