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|संग्रह=पद-रत्नाकर / भाग- 4 / हनुमानप्रसाद पोद्दार
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<poem>श्रीराधा माधव, श्रीमाधव राधा-दोनों एक स्वरूप।
एक तव सच्चिदानन्दमय एक भाव-रस परम अनूप॥
दुग्ध-धवलता, अग्रि-दाहि का, रवि-‌आभा सब नित्य अभिन्न।
करते तदपि भाव-रस-पूरित लीला ललित पृथक्‌-परिछिन्न॥

राधा प्रकृति-परा, निर्लिप्ता, कृष्णस्वरूपा, कृष्णाराम।
कृष्णात्मा, कृष्णानुरागरूपा, कृष्णप्राणा अभिराम॥
कृष्णसुखा कृष्णारूप केवल करतीं लीला अविराम।
प्रेमाधिष्ठात्री देवी, परमाद्या, रासेश्वरी ललाम॥

परमाह्लादरूपणी, धन्या, मान्या, उच्चादर्श महान।
कृष्ण-नित्य-‌आनन्दोदधि को भी करतीं आनन्द-प्रदान॥
सकल रूप-गुण-गर्व-हारिणी, कृष्णचिहारिणि निष्काम।
नित्य-‌अतुल-निज-गौरवपूर्णा, नित गौरव-विस्मृता तमाम॥

कृष्णस्तुता, कृष्ण-‌आराध्या, कृष्ण-वक्ष-वासिनी उदार।
कृष्णाराधनपरा, कर रहीं तत्सुखार्थ ही नित्य विहार॥
नित्य स्वरूपशक्ति चिन्मयी, नित्य अजन्मा सर्वाधार।
मूलप्रकृति अयोनिजा, लेतीं निज इच्छानुसार अवतार॥

नित्य दिव्य गोलोकविहारिणि निज-स्वरूप-सद्‌‌गुणसंयुक्त।
मधुर मनोहर बनीं आज ‘वृषभानु-नन्दिनी’ सुषमा-युक्त॥
अतुल रूप-सौन्दर्य अनुम शुचि माधुर्य नित्य तन धार।
आकर्षित करतीं सर्वाकर्षक श्रीकृष्णचि अविकार॥

निज-सुख-वाछा-लेश-कल्पना-गन्ध-शून्य सर्वत्र पवित्र।
सतीशिरोमणि सर्वत्याग-प्रतिमा सजीव, अत्यन्त विचित्र॥
आज हु‌ई थीं प्रकट वही शुभ महाभावरूप बड़भाग।
भू का शुचि सौभाग्य उठा था दुर्लभ आज सहज ही जाग॥

अतः मनायें आज हर्षभर महामहोत्सव हम सब लोग।
अर्पित हो जायें उनके ही, दिया जिन्होंने यह संयोग॥
करें युगल सर कार ह में निज दास-रूप में अंगीकार।
बोलो मन से, मुक्त-कण्ठ से राधा-माधव-जय-जय कार॥
</poem>
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