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|रचनाकार=हनुमानप्रसाद पोद्दार
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|संग्रह=पद-रत्नाकर / भाग- 4 / हनुमानप्रसाद पोद्दार
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<poem>आ‌ए मुनि भानु-भौन नारद बरसाने।
गावत हरिनाम मधुर पावन रस-साने॥
मिले वृषभान आय बोले मृदु बानी।
हरिपुर तैं आ‌ए हम सुनि कै, सुखदानी॥

प्रकट भर्ईं कीरति-कूख कुंवरि श्रीराधा।
पूरन सब आस, हरन त्रास, सकल बाधा॥
दरसन करवा‌औ हमैं कुंवरि के अबहीं।
दीने पठाय भानु भीतर महल तबहीं॥

देखत ही भ‌ए मगन, तन-मन सब भूले।
महा आनंद-रस छायौ, हि‌ए फूले॥
भाँति-भाँति करत स्तवन, फेर कर दीनी।
चरन-रेनु कुंवरि की सिर चढ़ाय लीनी॥

बाहिर आय बोले-’वृषभान बड़भागी !
तुम पै दुरलभ अपार कुँवारि-कृपा जागी॥
प्रकट भर्ईं आय घर तुहरे जो स्वामिनि।
सच्चिदानंदम‌ई अह्लादिनि हरि-भामिनि॥

मृदुल सुर बजाय बीन, मधुर-मधुर गावन।
लगे रस-भरे दृगन आँसू ढरकावन॥
सरस रस प्रमत्त फेर नृत्य करन लागे।
बोले-'मैं धन्य आज, भाग्य भय जागे’॥
</poem>
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