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|संग्रह=पद-रत्नाकर / भाग- 4 / हनुमानप्रसाद पोद्दार
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<poem>
हरि-प्रिय-भामिनि, अग-जग-स्वामिनि, तन-दुति-दामिनि श्रीराधा।
त्रिभुवन-पावनि, सोक-नसावनि, हरनि सकल बिधि भव-बाधा॥

प्रगटीं रससाने श्रीबरसानें, भानु-कीर्ति घर सुघरी।
सब धन्य भ‌ए, सब भ‌ए प्रफुल्ल्ति, मिटी बिथा सबकी सगरी॥

श्रीरास-रसेस्वरि, सुंदरता-मधुरता-‌ईश्वरि, हरि-प्यारी।
आ‌ए दरसन हित सिव, मुनि नारद, सनक आदि रिषि ब्रतधारी॥

सब भ‌ए कृतारथ करि दरसन-परसन मन सबके अनुरागे।
वृषभानु-कीर्ति की, बरसाने की जय-जयति करन लागे॥

</poem>
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