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|संग्रह=पद-रत्नाकर / भाग- 4 / हनुमानप्रसाद पोद्दार
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<poem>
मंगल बधा‌इयाँ हो, बँट रही भानू के दरबार।
राधिका प्रेम-मूरति हो, छबीली ने लीनौ अवतार॥
सुहासिनि नारियाँ हो, कर रहीं सब कुल के आचार।
गा रहीं गीत-मंगल हो, लौन-रा‌ई कर अति मनुहार॥

सुहासिनि सब बड़भागिनि। जय-जय। कर रहीं नेग सुहागिनि॥
जय-जय॥
पहन केसरिया जामा। जय-जय। बजाते ढोल-दमामा॥
जय-जय॥
नचनिया नाच दिखाते। जय-जय। मस्त हो तान लगाते॥
जय-जय॥
गा रहे मधुर गुनीजन। जय-जय। हर रहे हैं सब के मन॥
जय-जय॥मंगल...

ज्योतिषी भट्टजी हो, आये माथे तिलक सँवार।
पोथियाँ सँग में हो, लाये पूरन करन विचार॥
शोध शुभ लग्र का हो, देखते सभी ग्रहों के स्थान।
सभी ग्रह उच्च के हो, दुर्लभ देखे अचरज मान॥

ज्योतिषी सब चकराये। जय-जय। मनहिं-मन अति हरषाये॥
जय-जय॥
भानु नृप बोलि लिये तब। जय-जय। सुना‌ई गुन-गाथा सब॥
जय-जय॥
मानवी नहीं कुँवारि यह। जय-जय। प्रेम-रस-सुधा-गन्धवह॥
जय-जय॥
नित्य यह हरि की प्यारी। जय-जय। नहीं तिन तें यह न्यारी॥
जय-जय॥मंगल...

मोद भर कर हृदय में हो, भानु ने खोल दिये भंडार।
रत्न, धन, धाम, कंचन हो, लुटाये हाथों खुले, उदार॥
दूध की तरुण गायें हो, करीं लाखों द्विजों को दान।
किया समान-पूजन हो, नम्र हो, छोडक़र अभिमान॥

लुटी सम्पति अनूठी। जय-जय। हीरों के हार अँगूठी॥
जय-जय॥
भानु-मन तृप्ति न आ‌ई। जय-जय। वृत्ति दे-दे न अघा‌ई॥
जय-जय॥
रहा अब भिक्षु न को‌ई। जय-जय। दरिद्रता सब की खो‌ई॥
जय-जय॥
मिटा सबका मँगतापन। जय-जय। हु‌ए दाता उदार-मन॥
जय-जय॥मंगल...

सुनत मंगल संदेश हो, बाबा नन्द उठे हरषाय।
खबर दी जाय अंदर हो, जसोदा-‌उर-‌आनँद न समाय॥
सँजोये रत्न-भूषण हो, भरे शुभ वस्तु‌ओं से थाल।
स्वर्ण के, संग अपने हो, ले चलीं, सखी-दल सुविशाल॥

नन्द-बाबा भी आये। जय-जय। संग जसुमति को लाये॥
जय-जय॥
माट माखन के सिर धर। जय-जय। चले सँग अगणित चाकर॥
जय-जय॥
देखने लाली आ‌ई। जय-जय। मात जसुमति मन-भा‌ई॥
जय-जय॥
महल के अंदर जाकर। जय-जय। मिली कीरति से सादर॥
जय-जय॥मंगल...

देख-कर जसुमति रानी हो, कीर्तिदा मन अति मोद भराय।
उठा निज कर लाली को हो, द‌ई जसुमति की गोद सुलाय॥
निरख मुख-चंद्र प्रभामय हो, यशोदा आनँद-रस झूली।
रह ग‌ई अपलक निरखत हो, देह की सुधि सहसा भूली॥

हु‌आ जब चेत, लजा‌ई। जय-जय। कुँवारि तब हिये लगा‌ई॥
जय-जय॥
रतन-धन किये निछावर। जय-जय। भ‌ई नहिं तृप्ति तनिक भर॥
जय-जय॥
भामती मन की चीन्हीं। जय-जय। असीसें लाखों दीन्हीं॥
जय-जय॥
कीर्तिदा ने सनमानी। जय-जय। यशोदा अति सुख मानी॥
जय-जय॥मंगल...

नन्द सँग-गोप-ग्वाले हो, नाचते आये करते रंग।
छेड़ते तान टेढ़ी हो, मचाते रस्ते भर हुड़दंग॥
भंगिमा करते अद्भुत हो, सभी रस-‌आनँद-मदमाते।
छोड़ सँकोच-संभ्रम हो, गीत सब हँसी-भरे गाते॥

आय पहुँचे बरसाने। जय-जय। लगे माखन बरसाने॥
जय-जय॥
लिये दधि-माखन-मटके। जय-जय। कर रहे सुन्दर लटके॥
जय-जय॥
बहा दी माखन-धारा। जय-जय। भरा बरसाना सारा॥
जय-जय॥
मिले सबही आ-‌आकर। जय-जय। भये आनँद के आकर॥
जय-जय॥मंगल...

मनसुखा, धनसुखा, बल हो, तोक, मधुमंगल, दाम, मदार॥
चपलता सहज सब में हो, कर रही थी पूरा विस्तार॥
नन्द बाबा के ही सँग हो, आ गये थे ये बाल अनेक।
यहाँ बरसानेवाले हो मिले, हो गये तुरत ही एक॥

हृदय में अमित मोद भरि। जय-जय। लगे नाचन माखन-सरि॥
जय-जय॥
नन्द वृषभानु-हाथधर। जय-जय। नाचते लज्जा तजकर॥
जय-जय॥
श्वेत दाढ़ी है हिलती। जय-जय। भानु-दाढ़ी से मिलती॥
जय-जय॥
मचा आनँद-कोलाहल। जय-जय। सिहाता देख देव-दल॥
जय-जय॥मंगल...

देव-देवियाँ आ गयीं नभ में बैठि विमान।
बरसाये सुरभित सुमन आनँद-मग्र महान॥

</poem>
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