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|संग्रह=पद-रत्नाकर / भाग- 4 / हनुमानप्रसाद पोद्दार
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<poem>
धन्य घरी, धनि भादौं मास।
धनि आठैं तिथि, पख उजियारौ, धनि अभिजित नछत्र प्रकास॥

प्रगटीं जा में जग की स्वामिनि, नित हरि-भामिनि सब सुख-मूल।
भयौ प्रकास अखिल जन-मन-नभ मिटी ताप तीनहुँ की सूल॥

घर-घर में छायौ सुख सुचि अति, घर-घर भ‌ए मंगलाचार।
अति उछाह सब मान नारि-नर नाचत-गावत सजि सिंगार॥

भानु नृपति अति मगन परम सुख करत अमित मनि-हेम सुदान।
अति उदार, धन-धान्य लुटावत, ललित लली सुख-हित मतिमान॥

खग, मृग, भृंग, भुजंग-जीव सब आनँद-मगन भूलि निज बात।
मन अनुभवत परम सुख, बिनु रितु, जड़ तरु लता प्रफुल्लित गात॥

मारुत मंद-सुगंध बहत नभ, निरमल सीतल तेज अपार।
बिकसी प्रकृति आज चहुँ दिसि लखि आद्य प्रकृति कौ नव अवतार॥

आ‌ई जग के पावन कारन, सुख-निधि कौं अतिसय सुख-देन।
परिनत भयौ कलुष तजि रतिमय पावन परम अपावन मैन॥

परब मनावहु, गावहु, नाचहु आज समुद सब तजि मद-गान।
बाँटहु सबै बधा‌ई मिलि कह-जय कीरति, जय-जय बृषभान॥

</poem>
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