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|रचनाकार=सरवर आलम राज़ 'सरवर'
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|संग्रह=एक पर्दा जो उठा / सरवर आलम राज़ 'सरवर'
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<poem>याद भी ख़्वाब हुई, याद वो आते क्यों हैं?
रोज़-ओ-शब इक नया अफ़्साना सुनाते क्यों हैं?

रोज़ मर मर के भला यूँ जिए जाते क्यों हैं?
ज़िन्दगी! हम तिरे एहसान उठाते क्यों हैं?

सबको मालूम है दुनिया की हक़ीक़त फिर भी
क़िस्स-ए-दर्द वो दुनिया को सुनाते क्यों हैं?

कौन समझाये, ये समझाने की बातें कब हैं?
किस लिए ख़्वार हुए होश से जाते क्यों हैं!

रंज-ओ-आलाम का, रुसवाई-ए-नाकामी का
लोग हर बात का अफ़्साना बनाते क्यों हैं?

उस पे दुनिया की ये अंगुश्त-नुमाई? तौबा!
पूछिए हम से कि यूँ जान से जाते क्यों हैं?

बन्दगी से हमें कब आप की इन्कार रहा?
बात-बे-बात फिर अहसान जताते क्यों हैं?

इश्क़ तो ठीक है लेकिन ये ख़यानत "सरवर"?
जान जब अपनी नहीं, जान लुटाते क्यों हैं?
</poem>
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