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|संग्रह=एक पर्दा जो उठा / सरवर आलम राज़ 'सरवर'
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<poem>ग़म-ए-ज़िन्दगी! तिरा शुक्रिया, तिरे फ़ैज़ ही से ये हाल है
वो ही सुब्ह-ओ-शाम की उलझने, वो ही रात दिन का वबाल है

तिरा ग़म है हासिल-ए-ज़िन्दगी, न ग़लत समझ मिरे अश्क़ को
तिरे ग़म से जान चुराऊँ मैं, कहाँ ऐसी मेरी मजाल है?

न चमन में बू-ए-समन रही, न ही रंग-ए-लाला-ओ-गुल रहा
तू ख़फ़ा ख़फ़ा सा है वाक़ई, कि ये सिर्फ़ मेरा ख़याल है?

इसे कैसे जीना कहें अगर, गहे आह-ए-दिल,गहे अश्क़-ए-शब
वोही रात दिन की मुसीबतें, वो ही माह है,वो ही साल है!

कोई काश मुझको बता सके, रह-ओ-रस्म-ए-इश्क़ की उलझनें
तू कहे तो बात पते की है, मैं कहूँ तो ख़ाम ख़याल है!

मैं ग़मों से हूँ जो यूँ मुतमइन, तू बुरा न माने तो ये कहूँ
तिरे हुस्न का नहीं फ़ैज़ कुछ, मिरी आशिक़ी का कमाल है!

है ये आग कैसी लगी हुई .मिरे दिल को आज हुआ है क्या?
जो है ग़म तो है ग़म-ए-आरज़ू, है अगर तो फ़िक्र-ए-विसाल है

ज़हे इश्क़-ए- अहमद-ए-मुस्तफ़ा, नहीं फ़िक्र-ए-रोज़-ए-जज़ा मुझे
यही आरज़ूओं की दीद है, यही ज़िन्दगी का मआल है

ये तुझे बता कि हुआ है क्या, पये इश्क़ ‘सरवर’-ए-ग़मज़दा?
न वो मस्तियां, न वो शोख़ियां, न वो हाल है, न वो क़ाल है!

</poem>
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