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|संग्रह=एक पर्दा जो उठा / सरवर आलम राज़ 'सरवर'
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<poem>आबला-पा घूमता हूँ वादी-ए-बेदाद में
दर्द किसने रख दिया है इश्क़ की रूदाद में?

जान सी इक पड़ गई है शिकवा-ए-सैय्याद में
है दुआ का रंग शामिल नाला-ओ-फ़रियाद में

वो मुलाक़ातें!,वो बातें! अल-अमान-ओ-अल-हफ़ीज़!
हाँ! मगर है बात ही कुछ और तेरी याद में!

हर गिरी दीवार में दुनिया नई आबाद है
झाँक कर तो देखिए मेरे दिल-ए-नाशाद में!

"चाँद को छूने का क़िस्सा, फूल पी लेने की बात"!
एक उलझन और निकली इश्क़ की उफ़्ताद में!

देखिए तो अह्ल-ए-दुनिया की करम-फ़रमाईयाँ!
चन्द पत्थर आए हैं मेरी ग़ज़ल की दाद में!

ये तमाशा-गाह-ए-हस्ती! ये हुजूम-ए-आरज़ू
शोर इक बरपा है कैसा,शहर-ए-बे-बुनियाद में?

क्या किसी से कम है "सरवर"‘अपनी रूदाद-ए-अलम?
बात ऐसी कौन सी है क़ैस और फ़रहाद में?
</poem>
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