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Kavita Kosh से
हिज्जे
आँखों-सा नम और सुंदर था दिन।<br><br>
पंडुक बहुत खुश ख़ुश थे<br>उनके पंखों के रोएंरोएँ<br>
उतरते हुए जाड़े की<br>
हल्की-सी सिहरन में<br>
“जब देखो, काट-कूट, छील-छाल, झाड़-झूड़<br>
गोभी पर, कपड़ों पर, दीवार पर<br>
किसका उतारती हैं गुस्सा ?"<br><br>
हम घर के आगे हैं कूड़ा–<br>
लड़की ने कुछ जवाब देने की ज़रूरत नहीं समझी<br>
और झट से दौड़ कर, बैठ गई उधर<br>
जहाँ जुएं जुएँ चुन रही थीं सखियाँ<br>
एक-दूसरे के छितराए हुए केशों से<br>
नारियल का तेल चपचपाकर<br>
दरअसल–<br>
जो चुनी जा रही थीं–<br>
सिर्फ़ जुएं जुएँ नहीं थीं<br>
घर के वे सारे खटराग थे<br>
जिनसे भन्नाया पड़ा था उनका माथा।<br><br>
दूसरी उतनी ही पुरानी सखी के<br>
छितराए हुए केशों से<br>
चुन रही हैं जुएंजुएँ<br>सितारे और चमकुल !<br><br>
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