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Kavita Kosh से
हिज्जे
अपनी पहली पेंशन लेकर<br>
जब घर लौटीं–<br>
सारी निलम्बित इच्छाएंइच्छाएँ<br>
अपना दावा पेश करने लगीं।<br><br>
जहाँ जो भी टोकरी उठाई<br>
उसके नीचे छोटी चुहियों-सी<br>
दबी-पड़ी दीख गई कितनी इच्छाएं इच्छाएँ!<br><br>
श्रीमती कार्लेकर उलझन में पड़ीं<br>
क्या-क्या खरीदेंख़रीदें, किससे कैसे निबटें !<br>
सूझा नहीं कुछ तो झाड़न उठाई<br>
झाड़ आईं सब टोकरियाँ बाहर<br><br>
चूहेदानी में इच्छाएं फंसाईंइच्छाएँ फँसाईं<br>(हुलर-मुलर सारी इच्छाएंइच्छाएँ)<br>
और कहा कार्लेकर साहब से–<br>
“चलो जराज़रा, गंगा नहा आएं आएँ!”<br><br>
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