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|रचनाकार= सुधा गुप्ता
|संग्रह=
}}
[[Category:सेदोका]]
<poem>
नारी महिमा
पीकर विष–प्याला
सौंप देती अमृत
उसका पथ
सदा ॠत–सात्विक
त्याग, क्षमा आवृत्त !
समर्पण : देश की उन बहादुर बेटियों को जो आज
निरन्तर संग्रामरत हैं और ‘भावी’ निर्माण हेतु सन्नद्ध!
-0-
प्रभाग एक अतीत
शकुन्तलोपाख्यान
1
तापस बाला
मुग दृष्टि से बिंध
सुधि बिसरा बैठी
भूली मर्यादा
कुसुमित लतिका
तरु का आश्रय पा।
2
राजा दुष्यन्त
आखेट खेलने जा
स्वयं बने आखेट
गंधर्व–ब्याह
रचाया, प्रेम पाया
फिर लौटे स्वदेश।
3
आश्रम लौटे
ॠषिवर कण्व तो
जाने थे समाचार
निर्णय लिया :
पतिगृह जाना ही
संगत व्यवहार।
4
हो गई विदा
ॠषि कण्व–पालिता
दुहिता शवंफुतला
संग ले गई
छौने का दुलार औ’
वृक्ष–लतिका–प्यार।
5
राज महल
वनकन्या को देख
करते तिरस्कार
मुकर गया
रस लोभी भँवरा
पे्रम नहीं स्वीकार।
6
सबने छोड़ा
दुर्भाग्य थामे हाथ
चलता साथ–साथ
मूर्च्छ खा, गिरी
जागी ममता माँ की
मेनका आ, ले गई।
7
देव–भूमि में
ॠषि कन्याओं–घिरी
स्वयं को जब पाया
पावन स्थल
सुरक्षित जीवन
साहस लौट आया।
8
अन्त:सत्वा थी
सम्मुख था मरण
किया नहीं वरण
हिम्मत जुटा
लौटी ॠषि–संसार
नवोन्मेष संचार।
9
आया भरत
आर्यावर्त भविष्य
दुष्यंत का अतीत
क्रीड़ा में मग्न
सिंह शावक–दंत
गिन रहा निर्भीक !
10
अपूर्व शौर्य
अद्भुत पराक्रम
देश–भक्ति गहरी
भारतवर्ष
चक्रवर्ती सम्राट
वैजयन्ती फहरी।
11
साक्षी अतीत
सीता औ’ शकुंतला
हुई थीं तिरस्कृत
पुरस्कार में
क्रूर समाज पाया
लव–कुश, भरत।
12
युग–युग से
दोहराई जाती है
एक यही कहानी
चिर–कल्याणी
राह बना लेती है
नारी है स्वाभिमानी।
-0-
(प्रभाग दो वर्तमान )
1
कल या आज
नारी का इतिहास
फैला रहा उजास
आई विपदा
हिम्मत नहीं हारी
सबला सदा नारी।
2
आगे बढ़ती
कैसी भी हो लाचारी
सहनशील धरा
सृष्टि–उल्लास
सदा सृजन–रत
वह तो सुमंगला !
3
जला डालोगे ?
बस से फेंक दोगे ?
क़हर ढा डालोगे?
वह तो दूर्वा
हरी–भरी हो कर
फिर खड़ी हो नारी।
4
काश ! सोचते
यदि नारी न होती
तो तुम कैसे होते ?
कोख लजाते
बन बैठे दरिन्दे
बीज घृणा के बोते।
5
देश बेचते
राष्ट्र–द्रोह करते
तनिक न लजाते
कहते कुछ
और करते कुछ
बस गाल बजाते।
6
आँखें हों, देखो–
कुचली जा कर भी
अपने दम खड़ी
सब खोकर
मातृ भूमि रक्षा में
प्राण–पण से जुटी।
7
धानी वो साड़ी
लाल–हरी चूडि़याँ
सिन्दूर–दीप्त माँग
हो गइ सब
‘सीमा’ पर ‘शहीद’
देश पे क़ुरबान।
8
गोद का लाल
माँ के आँसू पोंछता
और यूँ प्रबोधता –
‘बड़ा हो जाऊँ
सीमा पर जाऊँगा
शत्रु–शीश लाऊँगा।
9
खेती करेगी
बेटे को पढ़ा–लिखा
क़ाबिल बनाएगी
सौंपेगी फिर
शत्रु से लोहा लेने
धन्य ! भारत माता !!
10
बोती रहेगी
पसीना वो अपना
खेतों, कड़ी धूप में
अरुन्धती–सी
चमकेगी सदा ही
नक्षत्र–समूह में।
11
ए.सी. में बैठ
डकारते रहोगे
पेंशन शहीद की
बना डालोगे
‘आदर्श सोसायटी’
‘ज़मीन’ शहीद की।
12
सत्ता के अंधो !
देते ‘शहादत’ पे
उल्टे–सीधे बयान
शर्म तो करो
या फिर डूब मरो
थू... थू... तुम्हें धिक्कार।
-0-
</poem>
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{{KKRachna
|रचनाकार= सुधा गुप्ता
|संग्रह=
}}
[[Category:सेदोका]]
<poem>
नारी महिमा
पीकर विष–प्याला
सौंप देती अमृत
उसका पथ
सदा ॠत–सात्विक
त्याग, क्षमा आवृत्त !
समर्पण : देश की उन बहादुर बेटियों को जो आज
निरन्तर संग्रामरत हैं और ‘भावी’ निर्माण हेतु सन्नद्ध!
-0-
प्रभाग एक अतीत
शकुन्तलोपाख्यान
1
तापस बाला
मुग दृष्टि से बिंध
सुधि बिसरा बैठी
भूली मर्यादा
कुसुमित लतिका
तरु का आश्रय पा।
2
राजा दुष्यन्त
आखेट खेलने जा
स्वयं बने आखेट
गंधर्व–ब्याह
रचाया, प्रेम पाया
फिर लौटे स्वदेश।
3
आश्रम लौटे
ॠषिवर कण्व तो
जाने थे समाचार
निर्णय लिया :
पतिगृह जाना ही
संगत व्यवहार।
4
हो गई विदा
ॠषि कण्व–पालिता
दुहिता शवंफुतला
संग ले गई
छौने का दुलार औ’
वृक्ष–लतिका–प्यार।
5
राज महल
वनकन्या को देख
करते तिरस्कार
मुकर गया
रस लोभी भँवरा
पे्रम नहीं स्वीकार।
6
सबने छोड़ा
दुर्भाग्य थामे हाथ
चलता साथ–साथ
मूर्च्छ खा, गिरी
जागी ममता माँ की
मेनका आ, ले गई।
7
देव–भूमि में
ॠषि कन्याओं–घिरी
स्वयं को जब पाया
पावन स्थल
सुरक्षित जीवन
साहस लौट आया।
8
अन्त:सत्वा थी
सम्मुख था मरण
किया नहीं वरण
हिम्मत जुटा
लौटी ॠषि–संसार
नवोन्मेष संचार।
9
आया भरत
आर्यावर्त भविष्य
दुष्यंत का अतीत
क्रीड़ा में मग्न
सिंह शावक–दंत
गिन रहा निर्भीक !
10
अपूर्व शौर्य
अद्भुत पराक्रम
देश–भक्ति गहरी
भारतवर्ष
चक्रवर्ती सम्राट
वैजयन्ती फहरी।
11
साक्षी अतीत
सीता औ’ शकुंतला
हुई थीं तिरस्कृत
पुरस्कार में
क्रूर समाज पाया
लव–कुश, भरत।
12
युग–युग से
दोहराई जाती है
एक यही कहानी
चिर–कल्याणी
राह बना लेती है
नारी है स्वाभिमानी।
-0-
(प्रभाग दो वर्तमान )
1
कल या आज
नारी का इतिहास
फैला रहा उजास
आई विपदा
हिम्मत नहीं हारी
सबला सदा नारी।
2
आगे बढ़ती
कैसी भी हो लाचारी
सहनशील धरा
सृष्टि–उल्लास
सदा सृजन–रत
वह तो सुमंगला !
3
जला डालोगे ?
बस से फेंक दोगे ?
क़हर ढा डालोगे?
वह तो दूर्वा
हरी–भरी हो कर
फिर खड़ी हो नारी।
4
काश ! सोचते
यदि नारी न होती
तो तुम कैसे होते ?
कोख लजाते
बन बैठे दरिन्दे
बीज घृणा के बोते।
5
देश बेचते
राष्ट्र–द्रोह करते
तनिक न लजाते
कहते कुछ
और करते कुछ
बस गाल बजाते।
6
आँखें हों, देखो–
कुचली जा कर भी
अपने दम खड़ी
सब खोकर
मातृ भूमि रक्षा में
प्राण–पण से जुटी।
7
धानी वो साड़ी
लाल–हरी चूडि़याँ
सिन्दूर–दीप्त माँग
हो गइ सब
‘सीमा’ पर ‘शहीद’
देश पे क़ुरबान।
8
गोद का लाल
माँ के आँसू पोंछता
और यूँ प्रबोधता –
‘बड़ा हो जाऊँ
सीमा पर जाऊँगा
शत्रु–शीश लाऊँगा।
9
खेती करेगी
बेटे को पढ़ा–लिखा
क़ाबिल बनाएगी
सौंपेगी फिर
शत्रु से लोहा लेने
धन्य ! भारत माता !!
10
बोती रहेगी
पसीना वो अपना
खेतों, कड़ी धूप में
अरुन्धती–सी
चमकेगी सदा ही
नक्षत्र–समूह में।
11
ए.सी. में बैठ
डकारते रहोगे
पेंशन शहीद की
बना डालोगे
‘आदर्श सोसायटी’
‘ज़मीन’ शहीद की।
12
सत्ता के अंधो !
देते ‘शहादत’ पे
उल्टे–सीधे बयान
शर्म तो करो
या फिर डूब मरो
थू... थू... तुम्हें धिक्कार।
-0-
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