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08:36, 14 जुलाई 2014
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शहर में रातमौसियाँ</div>
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रचनाकार: [[केदारनाथ सिंहअनामिका]]
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<div style="border: 1px solid #ccc; box-shadow: 0 0 10px #ccc inset; font-size: 16px; line-height: 0; margin: 0 auto; min-height: 590px; padding: 20px 20px 20px 20px; white-space: pre;"><div style="float:left; padding:0 25px 0 0">[[चित्र:Kk-poem-border-1.png|link=]]</div>
बिजली चमकीवे बारिश में धूप की तरह आती हैं -–थोड़े समय के लिए और अचानकहाथ के बुने स्वेटर, इन्द्रधनुष, पानी गिरने का डर हैतिल के लड्डूऔर सधोर की साड़ी लेकरवे क्यों भागे जाते आती हैं जिनके घर हैझूला झुलानेवे क्यों चुप पहली मितली की ख़बर पाकरऔर गर्भ सहलाकरलेती हैं जिनको आती है भाषाअन्तरिम रपटवह क्या है जो दिखता है धुँआ-धुआँ-सागृहचक्र, बिस्तर और खुदरा उदासियों की ।
वह क्या है हरा-हरा-सा जिसके आगेझाड़ती हैं जाले, संभालती हैं बक्सेमेहनत से सुलझाती हैं उलझ गए जीने के सारे धागेभीतर तक उलझे बालयह शहर कर देती हैं चोटी-पाटीऔर डाँटती भी जाती हैं कि जिसमें री पगली तूकिस धुन में रहती है इच्छाएँकुत्ते भुनगे आदमी गिलहरी गायेंकि बालों की गाँठें भी तुझसेठीक से निकलती नहीं ।
यह शहर कि जिसकी ज़िद है सीधीबालों के बहानेवे गाँठें सुलझाती हैं जीवन कीकरती हैं परिहास, सुनाती हैं क़िस्सेऔर फिर हँसती-सादीहँसातीज़्यादादबी-सेसधी आवाज़ में बताती जाती हैं -ज़्यादा सुख सुविधा आज़ादी–तुम कभी देखना इसे सुलगते क्षण मेंचटनी-अचार-मूंग-बड़ियाँ और बेस्वाद सम्बन्धयह अलगचटपटा बनाने के गुप्त मसाले और नुस्खे -अलग दिखता है हर दर्पण में–सारी उन तकलीफ़ों के जिन परध्यान भी नहीं जाता औरों का ।
साथियो, रात आई, अब मैं जाता हूँआँखों के नीचे धीरे-धीरेइस आनेजिसके पसर जाते हैं साएऔर गर्भ से रिसते हैं महीनों चुपचाप -–ख़ून के आँसू-सेचालीस के आसपास के अकेलेपन के उनकाले-जाने कत्थई चकत्तों का वेतन पाता हूँजब आँख लगे तो सुनना धीरेमौसियों के वैद्यक मेंएक ही इलाज है -धीरे–किस तरह रातहँसी और कालीपूजाऔर पूरे मोहल्ले की अम्मागिरी । बीसवीं शती की कूड़ागाड़ीलेती गई खेत से कोड़कर अपनेजीवन की कुछ ज़रूरी चीज़ें -भर बजती हैं ज़ंजीरें–जैसे मौसीपन, बुआपन, चाचीपन्थी,अम्मागिरी मग्न सारे भुवन की ।
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