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बूँद-बूँद बन छहर रहा यह
जीवन का जो जन्म-मरण है!
::जो सागर के अतल-वितल में ::गर्जन-तर्जन है, हलचल है; ::वही ज्वार है उठा यहाँ पर ::शिखर-शिखर में चहल-पहल है!
2.
घर के, वन के, अगल-बगल से
छलक पड़े जल स्रोत मचलकर!
::हेर रहे छवि श्यामल घन ये ::पावस के दिन सुधा पिलाकर ::जगा रहा है जड़ को चेतन ::जग-जीवन में बुला-जिलाकर!
3.
फूट-फूट बूँदों से श्यामा
रिमझिम चारों ओर हुई है.
::निर्झर, झर-झर मंगल गाओ, ::आज गर्जना घोर हुई है; ::छवि की उमड़-घुमड़ में कवि को ::तृषित मानसी मोर हुई है.
4.
है ऐसी हीं कथा मनोहर
उन्हें देख गिरिवर गाते हैं!
::ममता का यह भीगा अंचल ::हम जग में फ़िर कब पाते हैं ::अश्रु छोड़ मानस को समझा ::इसीलिए विरही गाते हैं!
5.
प्रेम-पर्व में जगा पपीहा,
तुम कल्याणी वाणी बोलो!
::आज दिवस कलरव बन आया, ::केलि बनी यह खड़ी निशा है; ::हेर-हेर अनुपम बूँदों को ::जगी झड़ी में दिशा-दिशा है!
6.
तर्जन नहीं आज गूंजा है
जड़-जग का गूंजा अभ्यंतर!
::इतने ऊँचे शैल-शिखर पर ::कब से मूसलाधार झड़ी है; ::सूखे वसन, हिया भींगा है ::इसकी चिंता हमें पड़ी है!
7.
रही झड़ी की बात कठिन यह,
कौन हठीली को समझाए!
::अजब शोख यह बूँदा-बाँदी, ::पत्तों में घनश्याम बसा है ::झाँके इन बूँदों से तारे, ::इस रिमझिम में चाँद हँसा है!
8.
जीवन सकल बनाकर पावस,
पावस में रसधार करेंगे.
::यही कठौती गंगा होगी, ::सदा सुधा-संचार करेंगे. ::गर्जन-तर्जन की स्मृति में सब ::यदा-कदा संहार करेंगे.
</poem>
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