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Kavita Kosh से
वो किसी भी बहाने से रच लेती है कविता
तुम शोर मचाते हो एक कविता लिखकर
वो जिन्दगी ज़िन्दगी लिख कर भी खामोश ख़ामोश रहती है
रातभर जागकर जब तुम इतरा रहे होते हो किसी एक कविता के जन्म पर
वो सारी रात दिनभर लिखी कविताओं का हिसाब करती है
कितनी कविताएं सब्जी के साथ कट गईं
और कितनी ही कविताएं सो गयी तकिये से चिपक कर
कढाई में कभी हलवा नहीं जला...जलती रही कविता धीरे धीरे
जैसे दूध के साथ उफन गए कितने अहसास भीगे से
हर दिन आखों आँखों से बहकर गालों पे बनती
और होठों के किनारों पर दम तोड़ती है कविता
तुम इसे जादू कहोगे
हाँ सही है, क्योंकि यह इस पल है अगले पल नहीं होगी
अभी चमकी है अगले पल भस्म होगी