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Kavita Kosh से
अन्धा है जागरण यहाँ का
घने धुँधलके में डूबी हैं सीमाएँ परिवेश की
है तो राजनीति की पुस्तक
उल्टा है व्याकरण यहाँ का
शब्द-शब्द से फूट रही है गन्ध विषैले द्वेष की
धूप बड़ी बेशरम यहाँ की